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पाप और आश्रव
११९ कहते हैं। तथा पुण्य और पापकी सिद्धि अन्य रीतिसे भी इस प्रकार हो सकती है-यह बात तो सबको विदित ही है कि संसारमे प्रवर्तती हुई प्रत्येक प्रवृत्ति फलवाली मालूम होती है, जैसे किसान को खेती करनेका फल धान्य वगैरह मिलता है वैसे ही दान वगैरह प्रशस्त क्रिया करने और हिंसा वगैरह खराब निया करनेका फल प्रत्येक करनेवालेको मिलना ही चाहिये और जो वह फल मिलता है वह पुण्य और पापके लिवाय अन्य कुछ नहीं हो सकता । अतः इस युक्तिसे भी पुण्य और पापकी विद्यमानता सिद्ध होती है।
अव यदि यह कहा जाय कि जिस प्रकार खेतीका फल धान्य वगैरह प्रत्यक्षरूप है वैसे ही दान वगैरह प्रशस्त क्रियाका फल दान देनेवालेकी लोकमे कीर्ति और प्रशंसा है और हिंसा आदिअप्रशस्त क्रियाओंका फल मांस भक्षण और तृप्ति है ऐसा मानना चाहिये, अर्थात् इन दोनों क्रियाओंके पुण्य और पाप जैसे परोक्ष फल कल्पित न करके उपरोक्त प्रत्यक्ष फल ही काल्पित करना विशेष युक्तियुक्त है। तथा लोकसमूह भी ऐसी ही प्रवृत्ति करता हुआ मालूम देता है कि जिसका फल प्रत्यक्ष मिलता हो, अर्थात् दान वगैरहका देना ऐसा उधार धन्दा करनेवाले बहुत कम मनुष्य हैं अतः खेती वगैरह प्रवृत्तिके समान उस दान वगैरह क्रियाका फल भी प्रत्यक्ष ही है और यही मान्यता लोक समूहको भी मान्य है। जैन सिद्धान्तकी दृष्टिसे उपरोक्त कथन सर्वथा असत्य मालूम होता है और वह असत्यता इस प्रकार सावित हो सकती है आपके कथनानुसार खेती और व्यापारकी हिंसारूप क्रिया करनेवाले बहुत मनुष्य हैं और स्वार्थत्यागपूर्वक दान वगैरह पवित्र क्रिया करनेवाले बहुत कम मनुष्य हैं, इससे ही यह सावित होसकता है कि इस हिंसारूप क्रियाका फल दुःखका कारण पाप है, क्योंकि संसारमें हिसाब लगानेसे मालूम होता है कि सुखी मनुष्योंकी अपेक्षा दुःखी आत्मायें ही बहुत हैं और
वे अनेक प्रकारकी हिंसामय क्रियायें कर रहे हैं। यदि आपकी . मान्यताके अनुसार हिंसामय प्रवृत्तिका फल पाप न हो और