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जैन दर्शन
आश्रव. प्राश्रव तत्वका स्वरूप इस प्रकार हैजिस प्रकार घड़ेसे पानी टपकता है उसी प्रकार जिसमेंसे कर्म टपकते हैं उसे श्राश्रव कहते हैं। जिन कारणांसे कर्म टपकते या चूते हैं उनके नाम इस प्रकार हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमदा, कपाय और योग, । सत्यदेव, सत्यगुरु, और सत्यधर्म, इन तीनों को सत्य न मानकर असत्य माननेका नाम मिथ्यात्व है। हिंसा आदि अशुभ क्रियाकी प्रवृत्तियोंसे न हटना इसका नाम अविरति है । विपय वासनाओंका सेवन करना और मदिरापान करना इसे प्रमाद कहते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारोंका संसर्ग करना इसका नाम कपाय है । मन वचन और तनकी प्रवृत्तिको योग कहते हैं।
पूर्वोक्त मिथ्यात्व आदि पाँच कर्मवन्धके (जिनके द्वारा ज्ञान न हो या कम हो ऐसे शानावरणीय प्रादि कर्मवन्धके) कारण हैं और इन वन्धके कारणोंको ही जैन शासनमें श्राश्रय कहते हैं। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, और कषायके साथ सम्बन्ध रखनेघाली तन, मन, और वचनकी प्रवृत्तियाँ ही शुभ और अशुभ कार्यका कारण होनेसे श्राश्रवरूप हैं । आश्रव कर्मवन्धका हेतु है इस लिये पहले हेतु और वाद कार्य रहना चाहिये। अर्थात् पहले आश्रव और पीछे कर्मवन्ध, इस प्रकार इन दोनोंकी विद्यमानता होनी चाहिये । परन्तु ऐसा माननेसे यह हरकत आती है कि कहीं भी वन्धके विना श्राव रह ही नहीं सकता। इस लिये पहले कर्मवन्ध और पीछे आश्रव ऐसा मानना पड़ेगा। परन्तु ऐसा मानने में भी जो आश्रव कर्मबन्धका हेतु कहा है वह अनुचित ठहरेगा। क्योंकि कदापि पहले कार्य और पीछे कारणहेतु, इस प्रकारका कार्यकारणका क्रम हो नहीं सकता, अतः आश्रव
और कर्मवन्ध इन दोनोंके स्थान किस तरह निश्चित करने चाहिये? . इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है-जैसे वीज और वृक्ष इन दोनोंमें : पहले कौन और पीछे कौन, इस बातका अन्त नहीं आ सकता, . परन्तु इनकाः प्रवाहः सदैव जारी रहता है, वैसे ही आश्रव और