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जीववाद
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हो तो जिस प्रकार जड़ आकाश किसी चीजको जान या पहचान नहीं सकता वैसे ही आत्मा भी किसी चीज़को किस प्रकार जान या पहचान सके ? यदि यह कहा जाय कि, आत्मामें चैतन्यका समवाय होनेके कारण वह पदार्थमात्रको जान सकता है, तो यह बात भी संगत नहीं । क्योंकि यदि ऐसा मान भी लिया जाय तो घटमें भी समवायका सम्भव होनेसे घट भी हमारे समान पदार्थ मात्रका जानकार होना चाहिये । क्योंकि समवाय यह सब जगह रहनेवाला नित्य और एक होनेसे घटमें भी इसकी विद्यमानता होनी उचित है । यद्यपि इस विषयमें यहाँपर हम बहुत कुछ कहना चाहते हैं तथापि ग्रन्थगौरव होनेके भयसे लिख नहीं सकते । तात्पर्य यह है कि आत्मामें जानकारी शक्तिको माननेवालोंको आत्माको स्वभावसे चैतन्यरूप ही मानना चाहिये और उसे जड़ रूप मानना तो किसी भी अवस्था में अच्छा नहीं । इस प्रकार आत्माके साथ सम्बन्ध रखनेवाले विशाल उल्लेखसे श्रात्माकी सिद्धि एक वज्र लेखके समान अकाट्य हो चुकी है अतः अव किसीकी यह मजाल नहीं कि न्यायपूर्वक आत्माका इन्कार कर सके ।
कर्मसहित आत्मा पांच प्रकारका है । एक इंद्रिय, एक मात्र स्पर्श इंद्रियवाला, द्विंद्रिय --दो स्पर्श और जीभ इंद्रियवाला, तीन इंद्रिय - स्पर्श, जीभ और नाक इंद्रियोंवाला, चार इंद्रिय- स्पर्श, जीभ, नाक और श्रंख इंद्रियांवाला, पांच इंद्रिय-स्पर्श, जीभ, नाक, आंख और कान इंद्रियांवाला । इन पांचों प्रकारमेंसे अन्तिम चार प्रकार सरलतासे समझे जा सकते हैं, क्योंकि इन अन्तिम चारों जीवों में जीव होनेके चिन्ह स्पष्ट तया मालूम होते हैं । परन्तु सबसे पहिला प्रकार एकेंद्रिय जीवके रखता है । वह बरावर नहीं समझा जा सकता । पृथ्वी, पानी, अनि, पवन और वनस्पति, ये पांचों एकेंद्रियवाले जीव हैं । परन्तु इनमें जीव होनेके किसी प्रकारके स्पष्ट चिन्ह मालूम नहीं देते इस लिये इन सबको एकेंद्रियवाले जीव किस तरह मानना चाहिये ? इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है- यद्यपि पृथ्वी वगैरह में 'जीव होनेके स्पष्ट लक्षण नहीं मिल सकते, परन्तु इन सब एकेंद्रिय
साथ सम्बन्ध
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