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जैन दर्शन
प्राणियों में जीवके लक्षण अस्पष्टतया मालूम ही पड़ते हैं। , जिस प्रकार मूर्छित हुए मनुष्य जीव होनेका लक्षण. स्पष्ट नहीं मालूम देता तथापि उसमें जीवका अस्तित्व माना जाता है उसी ., प्रकार इन एकेद्रियवाले जीवों में भी समझना चाहिये । कदाचित् यों कहा जाय कि मूर्छित मनुष्य जीवका मुख्य लक्षण श्वास लेनेकी क्रिया स्पष्ट मालूम होती है और पृथ्वी आदिमें श्वास वगै-.. रहकी क्रिया कुछ भी मालूम नहीं होती इससे उसकी सजीवता किस तरह मानी जाय ? इसका उत्तर इस प्रकार है-पृथ्वीमें एक इस प्रकारकी शक्ति रही हुई है कि जो अपने समान ही दूसरा अंकूर जमा सकती है ! जैसे कि नमक; परवाल और पापाण वगैरह । गुदाके किनारे पर रहे हुए बवासीरके मसे जिस तरह मांसके अंकूरोको उत्पन्न करते हैं, यह उसके सजीवपनका लक्षण है उसी प्रकार पृथ्वी वगैरहमें भी अपने ही समान दूसरे अंकूरोको अंकूरित करनेकी शक्ति होनेके कारण वे जीववाले हैं ऐसा मानने में क्या हरकत है ? जिसमें चैतन्यके लक्षण छिपे हुवे हैं और चैतन्यका एकाद निशान (व्यक्त) संभवित होता है । वनस्पतियोंके समान ही वैसे पृथ्वी वगैरह चेतना शक्तिवाले क्यों न माने जायँ ?। वनस्पतियोको नियमसे फलनेवाली होनेके कारण उसमें स्पष्टतया ही चैतन्य है यह मालूम हो सकता है उसी, प्रकार पृथ्वीमें भी चैतन्यका लक्षण विदित होनेसे उसे जीववाली क्यों न माननी चाहिये ? पृथ्वीमें जो चेतनकी श्रव्यक्त एक निशानी है वह रही हुई है इसीसे उसे जीववाली मानना युक्तियुक्त है। कदाचित् यो । कहा जाय कि, परवाल और पाषाण वगैरह तो कठिन चीज हैं उन्हें जीववाली किस तरह मान लिया जाय? इसका उत्तर इस प्रकार है। जिस तरह शरीरमें रहा हुआ हाड़ कठिन है तथापि । वह जीववाला है उसी तरह इस कठिन और चैतन्यवाली पृथ्वीको भी जीववाली माननी चाहिये। श्रथवा जिस तरह पशुशरीरमें रहे हुये सींग और साखा वगैरह जीववाने हैं उसी प्रकार यह पृथ्वी, . पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति य सब जीव-शरीर हैं क्योकि ये दोनों एक समान रीतिसे छेदन की जाती हैं, भेदन की जाती