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जैन दर्शन
कर्चा भी होना चाहिये। जिस प्रकार एक किसान खेतमें पैदा होनेवाले अन्न वगैरहका भोगनेवाला है अतः खेतीके करनेवाला भी वही है । उसी प्रकार आत्मा भी कर्मफलोंका भोक्ता होनेके कारण उनका कर्ता भी वही होना चाहिये । सांख्य मतवाले जिसे पुरुष कहते हैं वह सर्वथा प्रियाहीन होनेसे-अकर्ता होनेसे आकाश कुसुमके समान किसी वस्तु स्वरूप ही नहीं। हम जैन दर्शनानुयायी सांख्य सतवालोंसे यह पूछते हैं कि आप आत्माको भोका मानते हो या नहीं? यदि आप उसे भोक्ता मानते हों तो फिर का मानने में क्या हरकत आती है ? यदि उसे भोगनेवाला 'न मानते हो तो फिर वह भोका किस तरह कहा जाय ? क्योंकि जिस तरहसे मुक्त हुआ श्रात्मा क्रियाविहीन होनेसे भोक्ता नहीं हो सकता उसी तरह आपका माना हुआ (सांख्योंका ) आत्मा भी अकर्ता क्रियाविहीन होनेसे भोगनेवाला कैसे हो सके ? यदि जो आत्माको कर्त्ताके तौरपर न मानकर भी भोक्ताके समान मानोगे तो अन्य भी अनेक दूपण उपस्थित होते हैं और वैसा माननमें
करे सो भरें का सर्व सम्मत साधारण सिद्धान्त भी उलट जाता है। सांख्य कहते हैं कि प्रकृति कर्म करती है और श्रात्मा उसे भोगता है। यह कैसी सर्वथा असंगत बात है। यह बात तो ऐसी वनी कि करनेवाला और एवं भोगनेवाला और, यह वात सर्वथा 'अयुक्त है और अनुभव विरुद्ध है। यदि सांख्योंका यह मत बरावर ही हो तो फिर भोजन करनेवाला और तथा तृप्त होनेवाला कोई दूसरा, ऐसा भी प्रतीत होना चाहिये, परन्तु ऐसा तो कहीं भी
आजतक सुना और देखा नहीं गया, अतः सांख्योंका भी यह मत 'बरावर नहीं है । अर्थात् सांख्योंको अपना दुराग्रह छोड़कर
आत्माको भोकाके समान कर्ता भी मानना चाहिये। : - कितने एक वादी ऐसा भी मानते हैं कि प्रात्मा और उसमें रहा हुआ चैतन्य ये दोनों सर्वथा जुदे जुदे हैं। परन्तु मात्र एक समवाय नामक सवन्धके कारण इन दोनोका मिलान हुआहुत्रा है। 'अर्थात् आत्मा मूल स्वरूपसे जड़ रूप है । उन्होंका यह कथन भी सर्वथा असत्य है। क्योंकि यदि आत्माका चेतनरूप स्वभाव न