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जैन दर्शन में आचार मीमांसा [८९ इच्छा परिमाण-ये उनके नाम हैं। महाव्रतो की स्थिरता के लिए २५ भावनाए हैं। प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाएं हैं ।
इनके द्वारा मन को भावित कर ही महाव्रतो की सम्यक् अाराधना की जा सकती है। ___ पाँच महाव्रतो में मैथुन देह से अधिक सम्बन्धित है। इसलिए मैथुनविरति की साधना के लिए विशिष्ट-नियमो की रचना की गई है। ब्रह्मचर्य का साधना-मार्ग
ब्रह्मचर्य भगवान् है'।
ब्रह्मचर्य सब तपस्यात्रो में प्रधान है | जिसने ब्रह्मचर्य की आराधना कर ली उसने सव व्रतो को आराध लिया ३३। जो अब्रह्मचर्य से दूर हैं-वे
आदि मोक्ष हैं। मुमुक्षु मुक्ति के अग्रगामी हैं ३४। ब्रह्मचर्य के भग्न होने पर सारे व्रत टूट जाते हैं 341 __ ब्रह्मचर्य जितना श्रेष्ठ है, उतना ही दुष्कर है ३६। इस अासक्ति को तरने वाला महासागर को तर जाता है |
कहीं पहले दण्ड, पीछे भोग है, और कही पहले भोग, पीछे दण्ड है-ये भोग संगकारक हैं 3८1 इन्द्रिय के विषय विकार के हेतु हैं किन्तु वे राग-द्वेष को उत्पन्न या नष्ट नहीं करते। जो रक्त और द्विष्ट होता है, वह उनका संयोग पा विकारी बन जाता है ३९| ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए विकार के हेतु वर्जनीय हैं । ब्रह्मचारी की चर्या यूं होनी चाहिए :
(१) एकान्त वास-विकार-वर्धक सामग्री से दूर रहना । (२) कथा-संयम-कामोत्तेजक वार्तालाप से दूर रहना। (३) परिचय-संयम-कामोत्तेजक सम्पकों से बचना । (४) दृष्टि-संयम-दृष्टि के विकार से बचना। (५)श्रुति-संयम-कर्ण-विकार पैदा करनेवाले शब्दो से वचना। (६) स्मृति-संयम-पहले भोगे हुए भोगो की याद न करना। (७) रस-संयम-पुष्ट-हेतु के बिना सरस पदार्थ न खाना । (८) अति-भोजन-संयम (मिताहार)-मात्रा और संख्या में कम
खाना, बार-बार न खाना, जीवन-निर्वाह मात्र खाना ।