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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
भंते ! मैं उपस्थित हुआ हूँ-दुसरे महाव्रत मे मृषावाद-विरति के लिए। भंते ! मैं सब प्रकार के मृषावाद का प्रत्याख्यान करता हूँ। क्रोध, लोभ, भय
और हास्यवश-मनसा, वाचा, कर्मणा मैं स्वयं मृषा न बोलूँगा, न दूसरो से बुलवाऊँगा और न बोलने वाले का अनुमोदन करूँगा। जीवन पयन्त मैं मृषावाद से विरत होता हूँ।
भंते ! मैं उपस्थित हुआ हूँ-तीसरे महाव्रत में अदत्तादान-विरति के लिए। भंते ! मैं सब प्रकार के अदत्तादान का त्याग करता हूँ। गॉव, नगर या अरण्य में अल्प या बहुत, अणु या स्थूल, सचित्त या अचित्त अदत्तादान मनसा, वाचा, कर्मणा मै स्वयं न लूगा न दूसरो से लिवाउँगा और न लेने वाले का अनुमोदन करूँगा। जीवन पर्यन्त मैं अदत्तादान से विरत होता हूँ।
भंते ! मैं उपस्थित हुआ हूँ-चौथे महाव्रत में मैथुन-विरति के लिए।
भंते ! मैं सब प्रकार के मैथुन का प्रत्याख्यान करता हूँ। दिव्य, मनुष्य और तिर्यञ्च मैथुन का मनसा, वाचा, कर्मणा मैं स्वयं न सेवन करूँगा न दूसरो से सेवन करवाउँगा न सेवन करने वाले का अनुमोदन करूँगा। जीवन पर्यन्त मैं मैथुन से विरत होता हूँ। ____ भंते ! मैं उपस्थित हुआ हूँ पाँचवे महाव्रत परिग्रह-विरति के लिए। भंते ! मैं सब प्रकार के परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ। गांव, नगर या अरण्य में अल्प या बहुत, अणु या स्थूल, सचित्त या अचित्त, परिग्रह मनसा, वाचा, कर्मण मैं स्वयं न ग्रहण करूँगा न दूसरों से ग्रहण करवाऊँगा न ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करूँगा। जीवन पर्यन्त मैं परिग्रह से विरत होता हूँ। ___ भंते ! मैं उपस्थित हुआ हूँ छठे व्रत रात्रि-भोजन-विरति के लिए। भंते ! मैं सब प्रकार के असन, पान, खाद्य और स्वाद्य को रात्रि में खाने का प्रत्याख्यान करता हूँ। मनसा, वाचा कर्मणा मैं स्वयं रात के समय न खाऊंगा, न दूसरो को खिलाऊँगा, न खाने वाले का अनुमोदन करूँगा। जीवन पर्यन्त मैं रात्रि-भोजन से विरत होता हूँ।
गृहस्थ के मृषावाद आदि की स्थूल-विरति होती है, इसलिए वे अणुव्रत - ोते हैं। स्थूल-मृषावाद-विरति, स्थूल अदत्तादान-विरति, स्वदार-सन्तोष और