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जैन दर्शन में आचार मोमोसा
(६) विभूषा-संयम-शृङ्गार न करना। (१०) विषय-संयम-मनोज्ञ शब्दादि इन्द्रिय विषयो तथा मानसिक
संकल्पो से वचना । (११) भेद-चिन्तन-विकार हेतुक प्राणी या वस्तु से अपने को पृथक्
मानना। (१२) शीत और ताप सहना-ठंडक में खुले वदन रहना, गर्मी में सूर्य का
आतप लेना। (१३) सौकुमार्य-त्याग। (१४) राग-द्वेष के विलय का सकल्प करना४१ । (१५) गुरु और स्थविर से मार्ग-दर्शन लेना। (१६) अज्ञानी या आसक्त का संग-त्याग करना। (१७) स्वाध्याय में लीन रहना । (१८) ध्यान में लीन रहना। (१६) सूत्रार्थ का चिन्तन करना। (२०) धैर्य रखना, मानसिक चंचलता होने पर निराश न होना४२ । (२१) शुद्धाहार-निर्दोष और मादक वस्तु-वर्जित आहार। (२२) कुशल साथी का सम्पर्क । (२३) विकार-पूर्ण सामग्री का अदर्शन, अप्रार्थन, अचिन्तन, अकीर्तन४४ । (२४) काय-क्लेश-आसन करना, साज-सज्जा न करना। (२५) ग्रामानुग्राम-विहार-एक जगह अधिक न रहना। (२६) रूखा भोजन-रूखा आहार करना। (२७) अनशन-यावज्जीवन आहार का परित्याग कर देना४५ । (२८) विषय की नश्वरता का चिन्तन करना । (२६) इन्द्रिय का वहिर्मुखी व्यापार न करना । (३०) भविष्य-दर्शन-भविष्य में होनेवाले विपरिणाम को देखना। (३१) भोग में रोग का संकल्प करना । (३२) अप्रमाद-सदा जागरूक रहना-जो व्यक्ति विकार-हेतुक सामग्री
को उच्च मान उसका सेवन करने लगता है, उसे पहले ब्रह्मचर्य में