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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
[९१ शंका उत्पन्न होती है फिर क्रमशः आकांक्षा ( कामना ), विचिकित्सा ( फल के प्रति सन्देह ), द्विविधा, उन्माद और
ब्रह्मचर्य-नाश हो जाता है५० । इस लिए ब्रह्मचारी को पल-पल मावधान रहना चाहिए। वायु जैसे अग्निज्वाला को पार कर जाता है वैसे ही जागल्क ब्रह्मचारी काम-भोग की श्रासक्ति को पार कर जाता है। साधना के स्तर
धर्म की आराधना का लक्ष्य है-मोक्ष-प्राप्ति । मोक्ष पूर्ण है। पूर्ण की प्राप्ति के लिए साधना की पूर्णता चाहिए। वह एक प्रयत्न में ही प्राप्त नहीं होती। ज्यों-ज्यों मोह का बन्धन टूटता है, सों-त्यों उसका विकास होता है । मोहात्मक वन्वन की तरतनता के आधार पर साधना के अनेक स्तर निश्चित किये
(१) सुलभ-बोधि-यह पहला स्तर है। इसमें न तो साधना का ज्ञान होता है और न अभ्यास । केवल उसके प्रति एक अज्ञात अनुराग या आकर्षण होता है। सुलभ वोधि व्यक्ति निकट भविष्य में साधना का मार्ग पा सकता है।
(२) सम्यग् दृष्टि-यह दूसरा स्तर है। इसमें साधना का अभ्यास नहीं होता किन्नु उसका ज्ञान सम्यग होता है।
(३) ऋणुव्रती यह तीसरा स्तर है। इसमें साधना का ज्ञान और स्पर्श दोनों होते हैं। अणुव्रती के लिए चार विश्राम-स्थल बताए गए हैं :
ल्पक नी भाषा में :
क-एक भारवाहक वोस से दवा जा रहा था। उसे जहाँ पहुँचना था, वह स्थान वहाँ से बहुत दूर था। उसने कुछ दूर पहुँच अपनी पठड़ी वाएं से दाहिने कन्धे पर रख ली।
ख-थोड़ा आगे बढ़ा और देह-चिन्ता से निवृत्त होने के लिए गठड़ी नीचे रख दी। ___ ग-उसे उठा फिर आगे चला। मार्ग लम्बा था। वजन भी बहुत था। इसलिए उसे एक सार्वजनिक स्थान में विश्राम लेने को रुकना पड़ा।