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जैन दर्शन में आचार मीमांसा दर्शनो द्वारा स्वीकृत हुआ है । परन्तु जैन दर्शन में इनका जितना विस्तार है, उतना अन्यत्र प्राप्य नहीं है।
क्रिया का परित्याग ( या प्रक्रिया का विकास) क्रमिक होता है। पहले क्रिया निवृत्त होती है फिर अप्रत्याख्यान, पारिग्रहिकी, आरम्भिकी और माया-प्रत्यया-ये निवृत होती हैं ६४ । ईर्यापथिकी निवृत होती है, तब अक्रिया पूर्ण विकसित होती जाती है। जो कोई सिद्ध या मुक्त होता है, वह अक्रिय ही होता है ६५ । इसलिए सिद्धिक्रम में 'अक्रिया का फल सिद्धि' ऐसा कहा गया है ६६ । संसार का क्रम इसके विपरीत है । पहले क्रिया, किया से कर्म और कर्म से वेदना ६७ । ___कर्म-रज से विमुक्त आत्मा ही मुक्त होता है ६८ । सूक्ष्म कर्माश के रहते हुए मोक्ष नही होता ६९ । इसीलिए अध्यात्मवाद के क्षेत्र में क्रमशः व्रत ( असत् कर्म की निवृति ), सत्कर्म फलाशात्याग, सत्कर्म त्याग, सत्कर्म निदान शोधन और सर्व कर्म परित्याग का विकास हुआ। यह 'सर्वकर्म परित्याग' ही प्रक्रिया है। यही मोक्ष या विजातीय द्रव्य-प्रेरणा-मुक्त आत्मा का पूर्ण विकास है। इस दशा का निरूपक सिद्धान्त ही 'अक्रियावाद' है। निर्वाण-मोक्ष गौतम.. मुक्त जीव कहाँ रुकते हैं ? वे कहाँ प्रतिष्ठित हैं ? वे शरीर कहाँ छोड़ते हैं ? और सिद्ध कहाँ होते हैं ? भगवान्...मुक्त जीव अलोक से प्रतिहत हैं, लोकांत में प्रतिष्ठित हैं, मनुष्य-लोक में शरीरमुक्त होते हैं और सिद्धि-क्षेत्र में वे सिद्ध हुए हैं ।
निर्वाण कोई क्षेत्र का नाम नही, मुक्त आत्माएं ही निर्वाण हैं। वे लोकान में रहती हैं, इसलिए उपचार-दृष्टि से उसे भी निर्वाण कहा जाता है। ___ कर्म-परमाणुओ से प्रभावित अात्मा संसार में भ्रमण करती हैं। भ्रमणकाल में ऊर्ध्वगति से अधोगति और अधोगति से ऊर्ध्वगति होती है। उसका नियमन कोई दूसरा व्यक्ति नहीं करता। यह सब स्व-नियमन से होता है। अधोगति का हेतु कर्म की गुरुता और ऊर्ध्वगति का हेतु कर्म की लघुता है ।
कर्म का घनत्व मिटते ही आत्मा सहज गति से ऊर्ध्व लोकान्त तक चली