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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
[५९ (४) अब्रह्मचर्य-विरमण (५) परिग्रह-विरमण-ये पॉच संवर हैं। आस्रव क्रिया है। वह 'संसार' (जन्म-मरण-परम्परा) का कारण है। संवर अक्रिया है । वह मोक्ष का कारण है ५८ ।
__ सारांश यह है-क्रिया से निवृत होना, अक्रिया की ओर बढ़ना ही मोक्षाभिमुखता है। इसलिए भगवान् महावीर ने कहा है-'वीर पुरुष अहिंसा के राजपथ पर चल पड़े हैं ५९ । यह प्राणातिपात विरमण से अधिक व्यापक
(१) प्रारम्भिकी की क्रिया-जीव और अजीव दोनो के प्रति होने वाली हिंसक प्रवृत्ति ६०।
(२) प्राती त्यिकी क्रिया-जीव और अजीव दोनो के हेतु से उत्पन्न होने वाली रागात्मक और द्वे पात्मक प्रवृत्ति ६१ ।
यह हिंसा का स्वरूप है, जो अजीव से भी संबंधित है। अजीव के प्राण नहीं होते, इसलिए प्राणातिपात क्रिया जीव-निमितक होती है । हिंसा अजीव निमित्तक भी हो सकती है। हिंसा का अभाव 'अहिंसा' है। इस प्रकार अहिंसा जीव और अजीव दोनों से संबंधित है । अतएव वह समता है। वह वस्तु-स्वभाव को मिटा साम्य नहीं लाती, उससे सहज वैपम्य का अन्त भी नहीं होता किन्तु जीव और अजीव के प्रति वैपम्य वृत्ति न रहे, वह साम्य-योग है। जो कोई व्यक्ति स्वार्थ या परार्थ (अपने लिए या दूसरो के लिए ) सार्थक या अनर्थक ( किसी अर्थ-सिद्धि के लिए या निर्थक ) जानबूझकर या अनजान में, जागता हुआ या सोता हुआ, क्रिया-परिणत होता है या क्रिया से निवृत्त नहीं होता, वह कर्म से लिप्त होता है। इस स्थिति को स्पष्ट करने के लिए-(१) सामन्तोपनिपातिकी (२) अर्थ दण्ड-अनर्थ दण्ड (३) अनाभोगप्रत्यया आदि अनेक क्रियाओं का निरूपण हुआ ।
जैन दर्शन में क्रियावाद आस्तिक्यवाद के अर्थ में और अक्रियावाद नास्तिक्यवाद के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ६३ । वह इससे भिन्न है। यह सारी चर्चा प्रवृत्ति और निवृत्ति को लिए हुए है। 'प्रवृत्ति से प्रत्यावर्तन और निवृत्ति से निर्वतन होता है' यह तत्त्व न्यूनाधिक मात्रा में प्रायः सभी मोक्षवादी