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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
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जाती है। जब तक कर्म का घनत्व होता है, तब तक लोक का घनत्व उस पर दबाव डालता है। ज्योही कर्म का घनत्व मिटता है, आत्मा हलकी होती है, फिर लोक का घनत्व उसकी ऊर्ध्व-गति में बाधक नही बनता । गुब्बारे में हाइड्रोजन (Hydrogen ) भरने पर वायु मण्डल के घनत्व से उसका घनत्व कम हो जाता है, इसलिए वह ऊँचा चला जाता है। यही बात यहाँ समनिए । गति का नियमन धर्मास्तिकाय-साक्षेप है ७। उसकी समाप्ति के साथ ही गति समाप्त हो जाती है। वे मुक्तजीव लोक के अन्तिम छोर तक चले जाते हैं।
मुक्तजीव अशरीर होते हैं। गति शरीर-सापेक्ष है, इसलिए वे गतिशील नहीं होने चाहिए। वात सही है। उनमें कम्पन नहीं होता। अकम्पित-दशा में जीव की मुक्ति होती है ७३) और वे सदा उसी स्थिति में रहते हैं। सही अर्थ में वह उनकी स्वयं प्रयुक्त गति नहीं, वन्धन-मुक्ति का वेग है। जिसका एक ही धक्का एक क्षण में उन्हें लोकान्त तक ले जाता है ७४। मुक्ति-दशा में आत्मा का किसी दूसरी शक्ति में विलय नही होता। वह किसी दूसरी सत्ता का अवयव या विभिन्न अवयवों का संघात नहीं, वह स्वयं स्वतन्त्र सत्ता है । उमके प्रत्येक अवयव परस्पर अनुविद्ध हैं। इसलिए वह स्वयं अखण्ड है। उसका सहज रूप प्रगट होता है यही मुक्ति है। मुक्त जीवों की विकास की स्थिति में भेद नहीं होता। किन्तु उनकी सत्ता स्वतन्त्र होती है। सत्ता का स्वातन्त्र्य मोक्ष की स्थिति का बाधक नहीं है। अविकास या स्वरूपावरण उपाधि-जन्य होता है, इसलिए कर्म-उपाधि मिटते ही वह मिट जाता है-सव मुक्त आत्माओं का विकास और स्वरूप सम-कोटिक हो जाता है। आत्मा की जो पृथक-पृथक स्वतन्त्र सत्ता है वह उपाधिकृत नहीं है, वह सहज है, इसलिए किसी भी स्थिति में उनकी स्वतन्त्रता पर कोई आंच नही आती। आत्मा अपने आप में पूर्ण अवयवी है, इसलिए उसे दूसरो पर आश्रित रहने की कोई आवश्यकता नहीं होती।
मुक्त-दशा में आत्मा समस्त वैभाविक-श्राधेयो, औपाधिक विशेषताओ से विरहित हो जाती है। मुक्त होने पर पुनरावर्तन नहीं होता। उस (पुनरावर्तन) का हेतु कर्म-चक्र है। उसके रहते हुए मक्ति नहीं होती। कर्म का निर्मूल .