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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
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अर्थ और काम- ये दो जीवन की आवश्यकता या विवशता है । धर्म और मोक्ष जीवन की स्ववशता । वे ( धर्म और मोक्ष ) क्रियावादी के लिए हैं, अक्रियावादी के लिए नहीं । शेष दो पुरुषार्थ प्रत्येक समाजिक व्यक्ति के लिए हैं ।
जैन-दर्शन सिर्फ मोक्ष का दर्शन है। वह मोक्ष और उसके साधन भूत धर्म का विचार करता है । शेष दो पुरुषार्थों को वह नहीं छूता । वे समाज-दर्शन के विपय हैं ।
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सामाजिक रीति या कर्तव्य, अर्थ और काम की बुराई पर नियन्त्रण कैसे हो, यह विचार मोक्ष-दर्शन की परिधि में आता है । किन्तु समाज - कर्त्तव्य, अर्थ और काम की व्यवस्था कैसे की जाए, यह विचार मोक्ष-दर्शन की सीमा मे नही आता ।
मोक्ष का पुरुषार्थ हिंसा है । वह शाश्वत और सार्वभौम है । शेप पुरुषार्थ सार्वदेशिक और सार्वकालिक नहीं है। देश-देश और समय-समय की अनुकूल स्थिति के अनुसार उनमे परिवर्तन किया जाता है। हिंसा कभी और कही हिंसा नहीं हो सकती और हिंसा हिंसा नही हो सकती । इसी लिए हिंसा और समाज कर्त्तव्य की मर्यादाएं अलग-अलग होती है ।
लोक - व्यवस्था में कोई वाद, विचार या दर्शन ग्राये, मोक्ष-दर्शन को उनमें बाधक बनने की आवश्यकता नहीं होती । अर्थ और काम को मोक्ष-दर्शन से अपनी व्यवस्था का समाधान पाना भी अपेक्षित नही होता । समाज-दर्शन और मोक्ष-दर्शन को एक मानने का परिणाम बहुत अनिष्ट हुआ है । इससे समाज की व्यवस्था में दोप आया है और मोक्ष-दर्शन वदनाम हुआ । अधिकांश पश्चिमी दर्शनो और अक्रियावादी भारतीय दर्शन का लोक धर्म के साथ विशेष संवन्ध है । धर्म दर्शन - सापेक्ष और ससीम लोक धर्मों से निरपेक्ष हैं | वे निःसीम लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं ।
"जेण सिया तेण णोसिया १८ " - जिस लोक व्यवस्था और भोग-परिभोग से प्राप्ति और तृप्ति होती है, उससे नही भी होती, इसलिए यह सार वस्तु नही है ।
प्राणीमात्र दुःख से घवड़ाते हैं । दुःख अपना किया हुआ होता है ।