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जैन दर्शन में आचार मीमांसा "दुःख सबको अप्रिय है १५ । संसार दुःखमय है १६” जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, और मृत्यु दुःख है। आत्म-विकास की जो पूर्ण दशा है, वहाँ न जन्म है न मृत्यु है, न रोग है और न जरा।
मोक्ष
____ दर्शन का विचार जहाँ से चलता है और जहाँ रुकता है—आगे पीछे वहीं आता है—बन्ध और मोक्ष । मोक्ष-दर्शन के विचार की यही मर्यादा है। और जो विचार होता है वह इनके परिवार के रूप में होता है। भगवान् महावीर ने दो प्रकार की प्रज्ञा बताई है ज्ञ और प्रत्याख्यान-जानना और छोड़ना १७१ शेय सब पदार्थ हैं। आत्मा के साथ जो विजातीय सम्बन्ध है, वह हेय है। उपादेय हेय (त्याग ) से अलग कुछ भी नहीं है । आत्मा का अपना रूप सत्-चित् और आनन्दघन है । हेय नही छूटता तब तक वह छोड़ने-लेने की उलझन में फंसा रहता है । हेय-बंधन छूटते ही वह अपने रूप में आ जाता है। फिर बाहर से न कुछ लेता है और न कुछ लेने की उसे अपेक्षा होती है ।
शरीर छूट जाता है। शरीर के धर्म छूट जाते हैं-शरीर के मुख्य धर्म चार हैं :
(१) आहार (२) श्वास उच्छ्वास (३) वाणी (४) चिन्तन-ये रहते हैं तब संसार चलता है। संसार में विचारो और सम्पर्कों का तांता जुड़ा रहता है। इसी लिए जीवन अनेक रस-बाही बन जाता है। पुरुषार्थ
चार दुष्प्राप्य-वस्तुप्रो में से एक मनुष्यत्व है। मनुष्य का ज्ञान और पुरुषार्थ चार प्रवृतियो में लगता है। वे हैं (१) अर्थ (२) काम (३) धर्म (४) मोक्ष । ये दो भागो में बंटते हैं-संसार और मोक्ष। पहले दो पुरुषार्थ सामाजिक हैं। उनमें अर्थ-साधन है और काम साध्य। अन्तिम दो आध्यात्मिक हैं। उनमें धर्म साधन है और मोक्ष साध्य । आत्म-मुक्ति पर विचार करने वाला शास्त्र मोक्ष-शास्त्र या धर्म-शास्त्र होता है। अर्थ और काम पर विचार करने वाले समाज-शास्त्र, अर्थ-शास्त्र (अर्थ-विचार) और कामशास्त्र ( काम-विचार ) कहलाते हैं । इन चारो की अपनी-अपनी मर्यादा है।