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जैन दर्शन में आचार मीमांसा उसका कारण प्रमाद है। उससे मुक्ति पाने का उपाय अप्रमाद है १९| कुशल दर्शन वह है, जो दुःख के निदानमूल कारण और उनका उपचार बताए । . दुःख स्वकर्मकृत है यह जानकर कृत, कारित और अनुमोदन रूप आस्रव (दुःख-उत्पत्ति के कारण-मिथ्यात्व अव्रत, प्रमाद, कपाय और योग ) का निरोध करें । ___ कुशल दार्शनिक वह है जो वन्धन से मुक्त होने का उपाय खोजे २२॥ दर्शन की धुरी आत्मा है। आत्मा है-इसलिए धर्म का महत्त्व है। धर्म से बन्धन की मुक्ति मिलती है। वन्धन मुक्त दशा में ब्रह्म-भाव या ईश्वर-पद प्रगट होता है, किन्तु जब तक आत्मा की दृष्टि अन्तर्मखी नही होती, इन्द्रिय की विषय-वासनाओं से आसक्ति नहीं हटती। तबतक आत्म-दर्शन नहीं होता। जिसका मन शब्द, रूप गन्ध, रस और स्पर्श से विरक्त हो जाता है; वही आत्मवित्, ज्ञानवित् , वेदवित् , धर्मवित् और ब्रह्मवित् होता है २३। परिवर्तन और विकास ___ जीव और अजीव-धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल की समष्टि विश्व है। जीव और पुद्गल के संयोग से जो विविधता पैदा होती है, उसका नाम है सृष्टि । ___ जीव और पुद्गल में दो प्रकार को अवस्थाएं मिलती हैं--स्वभाव और विभाव या विकार।
परिवर्तन का निमित्त काल बनता है। परिवर्तन का उपादान स्वयं द्रव्य होता है । धर्म, अधर्म और आकाश में स्वभाव-परिवर्तन होता है । जीव और पुद्गल में काल के निमित्त से ही जो परिवर्तन होता है वह स्वभावपरिवर्तन कहलाता है। जीव के निमित्त से पुद्गल में और पुद्गल के निमित्त से जीव में जो परिवर्तन होता है, उसे कहते हैं-विभाव-परिवर्तन । स्थूल दृष्टि से हमें दो पदार्थ दीखते हैं-एक सजीव और दूसरा निर्जीव । दुसरे शब्दों में जीवत्-शरीर और निर्जीव शरीर या जीव मुक्त शरीर । आत्मा अमूर्त है, इसलिए अदृश्य है। पुद्गल मूर्त होने के कारण दृश्य अवश्य हैं पर अचेतन हैं। श्रात्मा और पुद्गल दोनों के संयोग से जीवत् शरीर बनता है। पुद्गल के सहयोग के कारण जीव के ज्ञान को क्रियात्मक रूप मिलता है और