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________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा [१७ सम्यग् दर्शन की प्राप्ति के हेतु सम्यग दर्शन की प्राप्ति दर्शन-मोह के परमाणुओ का विलय होने से होती है। इस दृष्टि का प्राति-हेतु दर्शन मोह के परमाणुओ का विलय है। यह (विलय ) निसर्गजन्य और ज्ञान-जन्य दोनो प्रकार का होता है। आचरण की शुद्धि होते-होते दर्शन-मोह के परमाणु शिथिल हो जाते हैं। वैसा होने पर जो तत्त्व रुचि पैदा होती है, यथार्थ-दर्शन होता है, वह नैसर्गिक-सम्यग - दर्शन कहलाता है। __ श्रवण, अध्ययन, वाचन या उपदेश से जो सत्य के प्रति आकर्षण होता है, वह आधिगमिक सम्यक् दर्शन है। सम्यक् दर्शन का मुख्य हेतु ( दर्शन-मोह विलय ) दोनों में समान है। इनका भेद सिर्फ बाहरी प्रक्रिया से होता है। इनकी तुलना सहज प्रतिभा और अभ्यासलब्ध ज्ञान से की जा सकती है। पंचविध सम्यग दर्शन दोनो प्रकार का होता है। इस दृष्टि से वह दसविध हो जाता है : (१-२) नैसर्गिक और आधिगमिक औपशमिक सम्यग् दर्शन (३-४) " " " क्षायोपशमिक " " (५-६) , " " क्षायिक (७-८) , , , सास्वाद , , (९-१०) , , वेदक दसविध रुचि किसी भी वस्तु के स्वीकरण की पहली अवस्था रुचि है । रुचि से श्रुति होती है या श्रुति से रुचि-यह बड़ा जटिल प्रश्न है। ज्ञान, श्रुति, मनन, चिन्तन, निदिध्यासन ये रुचि के कारण हैं, ऐसा माना गया है। दूसरी ओर यथार्थ रुचि के विना यथार्थ ज्ञान नहीं होता है-यह भी माना गया है। इनमें पौर्वापर्य है या एक साथ उत्पन्न होते हैं ? इस विचार से यह मिला कि पहले रुचि होती है और फिर ज्ञान होता है। सत्य की रुचि होने के पश्चात् ही उसकी जानकारी का प्रयत्न होता है । इस दृष्टि-बिन्दु से रुचि या सम्मक्त्व जो है, वह नैसर्गिक ही होता है । दर्शन-मोह के परमाणुओ का विलय होते ही बह अभिव्यक्त हो जाता है। निसर्ग और अधिगम का प्रपंच जो है, वह सिर्फ
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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