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पंचविध दर्शन ---
( १ ) पशमिक
(२) क्षायोपशमिक
( ३ ) क्षायिक
(४) सास्वादन ( ५ ) वेदक
जैन दर्शन में आचार मीमांसा
प्रगट
आत्मा पर आठ प्रकार के सूक्ष्मतम विजातीय द्रव्यो ( पुद्गल वर्गणात्र ) का मलावलेप लगा रहता है १३ । उनमें कोई आत्म-शक्ति के आवारक हैं, कोई विकारक, कोई निरोधक और कोई पुद्गल - संयोगकारक | चतुर्थ प्रकार का विजातीय द्रव्य आत्मा को मूढ़ बनाता है, इसलिए उसकी संज्ञा 'मोह' है । मूढ़ता दो प्रकार की होती है - ( १ ) तत्त्व - मूढ़ता ( २ ) चरित्र - मूढ़ता १४ | तत्व - मूढ़ता पैदा करने वाले सम्मोहक परमाणु की संज्ञा दर्शन - मोह है १५ | वे विकारी होते हैं तब सम्यक् - मिथ्यात्व ( संशयशील दशा ) प्रगट होता है १६ । उनके अविकारी बन १७ जाने पर सम्यक्त्व प्रगट होता है १८ | उनका पूर्ण शमन हो जाने पर विशुद्धतर स्वल्पकालिक - सम्यक्त्व होता है " । उनका पूर्ण क्षय ( आत्मा से सर्वथा विसम्बन्ध या वियोग ) होने से विशुद्धतम और शाश्वतिक सम्यक्त्व प्रगट होता है २० । यही सम्यक्त्व का मौलिक रूप है। पूर्व रूपों की तुलना में इसे सम्यक्त्व का पूर्ण विकास या पूर्णता भी कहा जा सकता है । इस सम्मोहन पैदा करने वाले विजातीय द्रव्यों ( पुद्गलों ) का स्वीकरण या अविशोधन, अर्ध-शुद्धीकरण, विशुद्धीकरण, उपशमन और विलयन – ये सब आत्मा के अशुद्ध और शुद्ध प्रयत्न के द्वारा होते हैं । इनके स्वीकरण या अविशोधन के हेतुत्रो की जानकारी के लिए कर्म-बन्ध के कारण सास्वादन - पक्रान्तिकालीन सम्यक दर्शन होता है " " | वेदक-दर्शन-सम्मोहक परमाणुओ के क्षीण होने का पहला समय जो है, वह वेदक- सम्यग - दर्शन है । इस काल में उन परमाणुत्रों का एकबारगी वेद होता है । उसके बाद वे सब आत्मा से विलग हो जाते हैं । यह आत्मा की दर्शन-मोह-मुक्ति-दशा ( क्षायिक - सम्यक् - भाव की प्राप्ति-दशा ) है । इसके बाद आत्मा फिर कभी दर्शन- मूढ़ नहीं बनता ।
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