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जैन दर्शन में आचार मीमांसा उसकी अभिव्यक्ति के निमित्त की अपेक्षा से है। जो रुचि अपने आप किसी बाहरी निमित्त के विना भी व्यक्त हो जाती है, वह नैसर्गिक और जो बाहरी निमित्त ( उपदेश-अध्ययन आदि ) से व्यक्त होती है, वह आधिगमिक है ।
ज्ञान से रुचि का स्थान पहला है। इसलिए सम्यक् दर्शन (अविपरीत दर्शन ) के विना ज्ञान भी सम्यक् -(अविपरीत ) नहीं होता। जहाँ मिध्यादर्शन वहाँ मिथ्या ज्ञान और जहाँ सम्य दर्शन वहाँ सम्यक् ज्ञान-ऐसा क्रम है। दर्शन सम्यक वनते ही ज्ञान सम्यक् बन जाता है। दर्शन और ज्ञान का सन्यक्त्व युगपत् होता। उसमें पौर्वापर्य नहीं है। वास्तविक कार्य-कारणभाव भी नहीं है | ज्ञान का कारण ज्ञानावरण और दर्शन का कारण दर्शन-मोह का विलय है। इसमें साहचर्य-भाव है। इस ( साहचर्य-भाव ) में प्रधानता दर्शन की है। इष्टि का मिथ्यात्व ज्ञान के सम्यक्त्व का प्रतिवन्धक है ।
निथ्या दृष्टि के रहते बुद्धि में सम्यग् भाव नहीं आता। यह प्रतिवन्ध दूर होते ही ज्ञान का प्रयोग सम्यक हो जाता है। इस दृष्टि से सम्यग दृष्टि को सन्यग् ज्ञान का कारण या उपकारक भी कहा जा सकता है।
दृष्टि-शुद्धि श्रद्धा-पक्ष है। सत्ल की रुचि ही इसकी सीमा है। बुद्धि-शुद्धि ज्ञान-पक्ष है। उसकी मर्यान है सत्य का ज्ञान । क्रिया-शुद्धि उसका आचरणपक्ष है। उसका विषय है-सत्य का आचरण । तीनों मर्यादित हैं, इसलिए असहाय हैं । केवल रुचि या आस्था-वन्ध होने मात्र से जानकारी नहीं होती, इसलिए रचि को ज्ञान की अपेक्षा होती है। केवल जानने मात्र से साध्य नही - निलता। इसलिए ज्ञान को क्रिया की अपेक्षा होती है। संक्षेप में रुचि ज्ञानसापेन है और ज्ञान क्रिया-सापेक्ष । ज्ञान और क्रिया के सम्यग भाव का मूल रुचि है, इसलिए वे दोनों रचि-सापेक्ष हैं। यह सापेक्षता ही मोक्ष का पूर्ण योग है। इसलिए रुचि, ज्ञान और क्रिया को सर्वथा तोड़ा नही जा सकता। इनका विभाग केवल उपयोगितापरक है या निरपेक्ष-दृष्टिकृत है। इनकी सापेक्ष स्थिति में कहा जा सकता है-रुचि ज्ञान को आगे ले जाती है । ज्ञान से रुचि को पोषण मिलता है, ज्ञान से क्रिया के प्रति उत्साह बढ़ता है, क्रिया से ज्ञान का क्षेत्र विस्तृत होता है, रुचि और आगे बढ़ जाती हैं।
इस प्रकार तीनों आपस में सहयोगी, पोषक व उपकारक है। इस विशाल हष्टि से रुचि के दस प्रकार बतलाए हैं२२