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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
[१६१ क्षय और दूसरे पुंज का उदय-निरोध (अन्तर् मुहूर्त तक उदय में न आ सके, वैसा विष्कम्भन ) होता है। 'अंनिवृत्तिकरण' के दो प्रधान कार्य हैं--(१) मिथ्यात्व परमाणुओ को दो रूपो में पुञ्जीकृत कर उनमें अन्तर करना' और ( २) पहले पुञ्ज के परमाणुओ को खपाना । यहाँ अनिवृत्तिकरण का काल समाप्त हो जाता है । इसके बाद 'अन्तरकरण' की मर्यादा-मिथ्यात्व-परमाणुओ के विपाक से खाली अन्तर्-मुहूर्त का जो काल है, वह औपशमिक सम्यग-दर्शन है। इनमें पहला विशुद्ध, दृसरा विशुद्धतर और तीसरा विशुद्धतम है। पहले में ग्रन्थि-समीपगमन,
दूसरे में ग्रन्थि-भेद और तीसरे में अन्तर करण होता है । २५–क्षायोपशमिक सम्यग-दर्शनी के मिथ्यात्व और मिश्र पुञ्ज उपशान्त
रहते हैं, सम्यक्त्व पुञ्ज का वेदन रहता है। इस प्रकार द्विपुञ्ज के उपशम
और तीसरे पुञ्ज के वेदन (वेदन द्वारा क्षय) के संयोग से क्षायोपशमिक
दर्शन बनता है। २६--तहिया णं तु भावाणं, सम्भावे उवएसणं। भावेणं सद्दहन्तस्स, सम्मत्तं
तं वियाहियं । -उत्त० २८१५ २७–असंजमं परियाणामि संजमं उवसंपज्जामि, अवंभं परियाणामि बंभं
उवसंपज्जामि, अकापं परियाणामि कापं उवसंपज्जामि, अन्नाणं परियाणामि नाणं उवसंपजामि, अकिरियं परियाणामि किरियं उवसं पज्जामि, मिच्छत्तं परियाणामि समत्तं उवसंपज्जामि अवोहि परियाणामि वोहिं उवसंपज्जामि, अमग्गं परियाणामि, मग्गं
उवसंपज्जामि । -आव० २८-तीर्थ प्रवर्तक वीतराग, राग-द्वेष-विजेता। २६-मुक्त परमात्मा ३०-सर्वज्ञ-सर्व-दर्शन ३१-चत्तारि मंगलं...केवली पण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि |... -आव० ३२-अरिहंतो महदेवो। जावजीवं सुसाहुओ गुरुणो। जिणपण्णत्तं तत्तं, इय
समत्तं मए गहियं । -आव० ३३-स्था० ३-१
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