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जैन दर्शन में आचार मीमांसा १०-नन्वववोधसामान्याद् ज्ञानसम्यक्त्वयोः कः प्रतिविशेषः ? उच्यते-रुचिः
सम्यकत्वम् , रुचिकारणं तु ज्ञानम् । यथोक्तम्-नाणमवायधिईओ, दसण पिछ नहोग्गहेआओ। यह वत्तरुई सम्म, रोइज्जइ जेण तं नाणं।
-स्था० १ ११-स्था०१ १२---स्था० २ १३-देखो कर्म प्रकरण । १४-" " " १५- , " " १६-मिथ्यात्व मोह या अविशुद्धपुंज का उदय होता है । १७–सम्यकत्व-मोह या शुद्ध-पुंज का उदय होने पर । १५-क्षायोपशमिक सम्यग-दर्शन प्रतिपाति-जो अशुद्ध-परमाणु-पुञ्ज का वेग
वढ़ने पर मिट भी सके-वैसा सम्यक्-भाव १६-औपशमिक सम्यग्-दर्शन-अन्तर्मुहूर्त तक होने वाला सम्यग्-भाव २०–क्षायिक सम्यग-दर्शन-अप्रतिपाति-फिर कभी नहीं जाने वाला। २१-देखिए-आचार-मीमांसा २२-उत्त० २८॥ १६-२७ । २३-मिथ्यात्व-मोह की देशोन ( पल्य का असंख्याततम भाग न्यून ) एक
कोड़ा-कोड़ सागर की स्थिति में से अन्तर-मुहूर्त में भोगे जा सकें, उतने परमाणुओ को नीचे खींच लेता है। इस प्रकार उन परमाणुओ के दो भाग हो जाते हैं--(१) अन्तर्-मुहूर्त-वैद्य और अन्तर्-मुहूर्त कम पल्य का
असंख्याततम भाग न्यून एक क्रोडाकोड़ी-सागर वेध ।। २४--(१) पहला चरण 'यथा प्रवृत्तिकरण' है। इसमें मिथ्यात्व-ग्रन्थि के
समीप गमन होता है। (२) दूसरा चरण 'अपूर्वकरण' है। इसमें मिथ्यात्व-अन्थि का भेद होता है और क्षायोपशमिक सम्यग-दर्शन पाने वाला मिथ्यात्व-मोह के परमाणुओं का तीन रूपो में पुञ्जीकरण करता है। (३) तीसरा चरण 'अनिवृत्तिकरण' है। इसमें मिथ्यात्व-मोह के परमाणुओ का दो रूपो में पुञ्जीकरण होता है। प्रथम पंज का शीघ्र