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३४-- स्था० २४
३५ - उत्त० २८/३१ रत्न० श्रा० १|११|१८
३६ - ( क ) उत्त० २८/२८
(ख) सम्यग् दर्शी दुर्गति नहीं पाता - - देखिए -रत्न० श्रा० १/३२
जैन दर्शन में आचार मीमांसा
३७
-भग० ३०११
३८-सम्यग्दर्शनसम्पन्न-मपि
मातंगदेहजम् ।
देवा देवं विदुर्भस्म-गुढाङ्गारान्तरौजसम् ॥ - रत्न० ना० २८
३६ - स्था० ६ । ११४८०
४०—–स्था० ६|१|४७८
४१ - न चास्थिराणां भिन्नकालतयाऽन्योन्याऽसम्बद्धानाञ्च तेषां वाच्यवाचक भावो युज्यते -स्या० मं० १६
४२ — तुलना —— बाह्य जगत् वास्तविक नही है, उसका अस्तित्व केवल हमारे मनके भीतर या किसी अलौकिक शक्ति के मन के भीतर है यह आदर्शवाद कहलाता है । आदर्शवाद के कई प्रकार हैं । परन्तु एक बात वे सभी कहते हैं, वह यह कि मूल वास्तिवकता मन है । वह चाहे मानव-मन हो या अपौरुषेय - मन और वस्तुतः यदि उसमें वास्तविकता का कोई अंश है तो भी वह गौण है। एंग्लस के शब्दो में मार्क्सवादियों की दृष्टि में- “भौतिकवादी विश्व दृष्टिकोण प्रकृति को ठीक उसी रूप में देखता है, जिस रूप में वह सचमुच पायी जाती है ।" बाह्यजगत् वास्तविक है । हमारे भीतर उसकी चेतना है या नहीं —— इस वात से उसकी चेतना स्वतन्त्र है । उसकी गति और विकास हमारे या किसी और के मन द्वारा संचालित नही होते ।
( मार्क्सवाद क्या है ? ५,६८,६६ ले० एनिल वर्न्स ) ४३—ये चारो तथ्य मनोविज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं ।
-४४ -- जड़० पृ० ६०-६४ ४५- भग० ११३