________________
१४२ ]
जैन दर्शन में आचार मीमांसा राज्यो की आन्तरिक स्वतन्त्रता के कारण उन्हे अपनी पृथक् विशेषताओ को विकसित करने का अवसर मिलता है। संघ संबद्ध होने के कारण उन्हें एक साथ मिलकर विकास करने का अवसर भी मिलता है।
इस समन्वयवादी-नीति में पृथक्ता में पल्लवन पानेवाले स्वातन्त्र्य-वीज का विनाश भी नही होता और सामुदायिक शक्ति और सुरक्षा के विकास का लाभ भी मिल जाता है।
स्विस लोगो में जर्मन, फ्रेंच और इटालियन-ये तीन भाषाएँ चलती हैं। इस विभिन्नता के उपरान्त भी वे एक कड़ी से जुड़े हुए हैं।
संवर्ग या सघात्मक राज्य में जो विभिन्नता और समता के समन्वय का अवसर मिलता है, वह प्रत्येक राज्य की पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्नता में नहीं मिल सकता।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि व्यष्टि और समष्टि तथा अपरिवर्तन और परिवर्तन के समन्वय से व्यवहार का सामञ्जस्य और व्यवस्था का सन्तुलन होता है-वह इनके असमन्वय में नहीं होता। समन्वय की दिशा में प्रगति
समन्वय का सिद्धान्त जैसे विश्व-व्यवस्था से सम्बद्ध है, वैसे ही व्यवहार व उपयोगिता से भी सम्बद्ध है। विश्व-व्यवस्था में जो सहज सामञ्जस्य है, उसका हेतु उसीमें निहित है। वह है-प्रत्येक पदार्थ में विभिन्नता और समता का सहज समन्वय । यही कारण है कि सभी पदार्थ अपनी स्थिति में क्रियाशील रहते हैं। उपयोगिता के क्षेत्र में सहज समन्वय नही है, इसलिए वहाँ सहज सामञ्जस्य भी नहीं है। असामञ्जस्य का कारण एकान्त-बुद्धि और एकान्त-बुद्धि का कारण पक्षपातपूर्ण बुद्धि है ।
स्व और पर का भेद तीव्र होता है, तटस्थ वृत्ति क्षीण हो जाती है, हिसा का मूल यही है।
अहिंसा की जड़ है मध्यस्थ-वृत्ति-लाभ और अलाभ में वृत्तियो का सन्तुलन। • स्व के उत्कर्ष में पर की हीनता का प्रतिविम्ब होता है। पर के उत्कर्ष में स्व को हीनता की अनुभूति होती है। ये दोनो ही एकान्तवा द हैं।