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जैन दर्शन में आचार मीमांसा यह व्यक्ति और समष्टि की सापेक्ष-नीति जैन-दर्शन का नय है। इसके अनुसार समष्टि-सापेक्ष व्यक्ति और व्यक्ति-सापेक्ष समष्टि-दोनो सत्य हैं। समष्टि-निरपेक्ष-व्यक्ति और व्यक्ति-निरपेक्ष-समष्टि-दोनो मिथ्या हैं। व्यवहार-सत्य
नय-वाद ध्रुव सत्य की अपरिहार्य व्याख्या है। यह जितना दार्शनिक सत्य है, उतना ही व्यवहार-सत्य है। हमारा जीवन वैयक्तिक भी है और सामुदायिक भी। इन दोनो कक्षाओ में नय की अर्हता है।
सापेक्ष नीति से व्यवहार में सामञ्जस्य आता है। उसका परिणाम है मैत्री, शान्ति और व्यवस्था। निरपेक्ष-नीति अवहेलना, तिरस्कार और घृणा पैदा करती है। परिवार, जाति, गांव, राज्य, राष्ट्र और विश्व-ये क्रमिक विकासशील संगठन है। संगठन का अर्थ है सापेक्षता। सापेक्षता का नियम जो दो के लिए है, वही अन्तर्राष्ट्रीय जगत् के लिए है।
एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की अवहेलना कर अपना प्रभुत्व साधता है, वहाँ असमंजसता खड़ी हो जाती है। उसका परिणाम है-कटुता, संघर्ष और अशान्ति ।
निरपेक्षता के पॉच रूप बनते हैं :
१-वैयक्तिक, २-जातीय, ३-सामाजिक, ४-राष्ट्रीय, ५–अन्तर्राष्ट्रीय ।
इसके परिणाम हैं-वर्ग-भेद, अलगाव, अव्यवस्था, संघर्ष, शक्ति-क्षय, युद्ध और अशान्ति। - सापेक्षता के रूप भी पॉच हैं :
१-वैयक्तिक, २-जातीय, ३--सामाजिक, ४-राष्ट्रीय ५–अन्तर्राष्ट्रीय। - इसके परिणाम है-समता-प्रधान-जीवन, सामीप्य, व्यवस्था, स्नेह, शक्तिसंवर्धन, मैत्री और शान्ति । व्यक्ति और समुदाय - व्यक्ति अकेला ही नही आता। वह बन्धन के बीज साथ लिए आता है । अपने हाथो उन्हें सींच विशाल वृक्ष बना लेता है। वही निकुञ्ज उसके लिए