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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
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बन्धन-गृह बन जाता है । बन्धन लादे जाते हैं, यह दिखाऊ सत्य है । टिकाऊ सत्य यह है कि बन्धन स्वयं विकसित किए जाते हैं ।
उन्हीं के द्वारा वैयक्तिकता समुदाय से जुड़कर सीमित हो जाती है । वैयक्तिकता और सामुदायिकता के बीच भेद-रेखा खींचना सरल कार्य नहीं है । व्यक्तिव्यक्ति ही हैं । सब स्थितियों ने वह व्यक्ति ही रहता 1 जन्म, मौत और अनुभूति का क्षेत्र व्यक्ति की वैयक्तिकता है । सामुदायिकता की व्याख्या पारस्परिकता के द्वारा ही की जा सकती है। दो या अनेक की जो पारस्परिकता है, वही नमुदाय है ।
पारस्परिक्ता की सीमा से इधर जो कुछ भी है, वह वैयक्तिकता है । व्यक्ति का श्रान्तरिक क्षेत्र वैयक्तिक है, वह उनसे जितना बाहर जाता है उतना ही सामुदायिक बनता चलता है |
व्यक्ति को नमाज - निरपेक्ष और समाज को व्यक्ति-निरपेक्ष मानना एकान्त पार्थक्यवादी नीति हैं । इनसे दोनों की स्थिति ममलम चनती हैं ।
समन्वयवादी नीति के अनुसार व्यक्ति और समाज की स्थिति सापेक्ष है । कहीं व्यक्ति गौण बनता है, नमाज मुख्य और कही समाज गौण बनता है और व्यक्ति मुख्य ।
इन स्थिति में स्नेह का प्रादुर्भाव होता है । श्राचार्य अमृतचन्द्र ने इसे मथनी के रूपक में चित्रित किया है । मन्थन के समय एक हाथ आगे जाता है, दूसरा पीछे चला जाता है । दूसरा यागे श्राता है, पहला पीछे सरक जाता है । इस सापेक्ष मुख्या मुख्य भाव मे स्नेह मिलता है । एकान्त त्राग्रह से खिचाव बढ़ता है ।
अन्तर्राष्ट्रीय-निरपेक्षता बहुता और
अल्पता, व्यक्ति और समूह के ऐकान्तिक ग्रह पर असन्तुलन बढ़ता है, सामञ्जस्य की कड़ी टूट जाती है ।
अधितम मनुष्यों का अधितम हित- यह जो सामाजिक उपयोगिता का सिद्धान्त है, वह निरपेक्ष नीति पर आधारित है । इसीके आधार पर हिटलर ने यहूदियों पर मनमाना अत्याचार किया ।