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जैन दर्शन में आचार मीमांसा किन्ही का शरीर सुन्दर, जन्म-स्थान पवित्र व व्यक्तित्व आकर्षक होता हैं और किन्ही का इसके विपरीत होता हैं।
कई जीव लम्वा जीवन जीते हैं, कई छोटा, कई यश पाते हैं और कई नहीं पाते या कुयश पाते हैं, कई उच्च कहलाते हैं और कई नीच, कई सुख की अनुभूति करते हैं और कई दुःख की। ये सब पौद्गलिक उपकरण हैं। जीव अपौद्गलिक है, इसलिए अपौद्गलिकता की दृष्टि से सब जीव समान हैं।
(ङ) निरुपाधिक स्वभाव की दृष्टि से :
कई व्यक्ति हिंसा करते हैं-कई नही करते, कई झूठ बोलते हैं-कई नहीं वोलते, कई चोरी और संग्रह करते हैं-कई नहीं करते, कई वासना में फँसते हैं- कई नहीं फँसते। इस वैषम्य का कारण मोह ( मोहक-पुद्गलो) का उदय व अनुदय है। मोह के उदय से व्यक्ति में विकार आता है। हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये विकार ( विभाव ) हैं। मोह के अनुदय से व्यक्ति स्वभाव में रहता है-अहिंसा सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह स्वभाव है। विकार औपाधिक होता है। निरुपाधिक स्वभाव की दृष्टि से सब जीव समान हैं।
(च) स्वभाव-वीज की समता की दृष्टि से :
आत्मा परमात्मा है । पौद्गलिक उपाधियो से बन्धा हुआ जीव संसारीआत्मा है। उनसे मुक्त जीव परमात्मा है। परमात्मा के आठ लक्षण हैं :
(१) अनन्त-ज्ञान, (२) अनन्त-दर्शन, (३) अनन्त-अानन्द, (४) अनन्त-पवित्रता, (५) अपुनरावर्तन, (६) अमूर्तता-अपौद्गलिकप्ता, (७) अगुरु-लघुता-पूर्ण साम्य, (८) अनन्त-शक्ति ।
इन आठों के बीज प्राणीमात्र में सममात्र होते हैं। विकास का तारतम्य होता है। विकास की दृष्टि से भेद होते हुए भी स्वभाव-बीज की साम्य-दृष्टि से सब जीव समान हैं।
यह आत्मौपम्य या सर्व-जीव-समता का सिद्धान्त ही निःशस्त्रीकरण की आधार-शिला है। आत्मा का सम्मान
अात्मा से आत्मा का सजातीय सम्बन्ध है। पुदगल उसका विजातीय