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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
निःशस्त्रीकरण की आधारशिला - सब जीव समान हैं
(क) परिमाण की दृष्टि से :
जीवों के शरीर भले छोटे हो या वड़े, आत्मा सव में समान है । चींटी और हाथी — दोनों की आत्मा समान हैं ३९ ।
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भगवान् ने कहा — गौतम ! चार वस्तुएं समतुल्य हैं – आकाश ( लोकाकाश ), गति - सहायक-तत्त्व ( धर्म ), स्थिति - सहायक तत्त्व ( अधर्म ) और एक जीव—– इन चारो के अवयव वरावर है ४० | तीन व्यापक है। जीव कर्म शरीर से बंधा हुआ रहता है, इसलिए वह व्यापक नही वन सकता । उसका परिमाण शरीर-व्यापी होता है । शरीर — मनुष्य, पशु, पक्षी - इन जातियो के अनुरूप होता है शरीर-भेद कारण प्रसरण - भेद होने पर भी जीव के मौलिक परिमाण मे कोई न्यूनाधिक्य नही होता । इसलिए परिमाण की दृष्टि से सव जीव समान हैं ।
(ख) ज्ञान की दृष्टि से :
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मिड्डी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति का ज्ञान सव से कम विकसित होता है । ये एकेन्द्रिय हैं । इन्हें केवल स्पर्श की अनुभूति होती है । इनकी शारीरिक दशा दयनीय होती है । इन्हे छूने मात्र से अपार कष्ट होता है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, अमनस्क पंचेन्द्रिय, समनस्क पंचेन्द्रिय — ये जीवों के क्रमिक विकास-शील वर्ग है। ज्ञान का विकास सब जीवों में समान नहीं होता किन्तु ज्ञान-शक्ति सब जीवो में समान होती है । प्राणी मात्र में अनन्त ज्ञान का सामर्थ्य है, इसलिए ज्ञान - सामर्थ्य की दृष्टि से सब जीव समान हैं ।
(ग) वीर्य की दृष्टि से :
कई जीव प्रचुर उत्साह और क्रियात्मक वीर्य से सम्पन्न होते हैं तो कई उनके धनी नही होते । शारीरिक तथा पारिपार्श्विक साधनो की न्यूनाधिकता व उच्चावचता के कारण ऐसा होता है । आत्म-वीर्य या योग्यतात्मक वीर्य में कोई न्यूनाधिक्य व उच्चावचात्व नही होता, इसलिए योग्यतात्मक वर्य की दृष्टि से सव जीव समान हैं ।
(घ) अपौद्गलिकता की दृष्टि से :