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________________ १२०] जैन दर्शन में आचार मीमांसा जो उस विज्ञान (चित्त ) में का विज्ञान ( नात्र ) है, वह विज्ञान-उपादानस्कन्ध के अन्तर्गत है। भिक्षुत्रो ! यदि कोई कहे कि बिना रूप के, विना वेदना के, विना संज्ञा के, विना संस्कार के, विज्ञान-चित्त-मन की उत्पत्ति, स्थिति, विनाश, उत्पन्न होना, वृद्धि तथा विपुलता को प्राप्त होना-हो सकता है, तो यह असन्भव है 1 दुःखबाद भारतीय दर्शन का पहला अाकर्षण है। जन्म, मृत्यु, रोग और बुढ़ापे को दुःख ४ और अन, अमर, अजर, अरुज को सुख नाना गया है । विचार-विन्दु __जन्म, नृत्यु, रोग और बुढ़ापा-ये परिणाम हैं। महात्मा बुद्ध ने इन्हों के निर्मुलन पर बल दिया। उसने से करुणा का स्रोत वहा। भगवान महावीर ने दुःख के कारणो को भी दुःख माना और उनके उन्लूलन की दशा में ही जनता का ध्यान खींचा। उसमें से संयम और अहिंसा का स्रोत व्हा। दुःख का कारण भगवान् महावीर ने कहा-वलाका अण्डे से और अण्डा बलाका से पैदा होता है, वैसे ही मोह-तृष्णा से और तृष्णा मोह से पैदा होती है । प्रिय रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श और भाव राग को उभारते हैं । अप्रिय रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श और भाव द्वेप को उभारते हैं । प्रिय-विषयों में श्रादमी फंस जाता है। अप्रिय-विपयो से दूर भागता है। प्रिय-विषयों में अतृप्त श्रादनी परिग्रह में आसक्त बनता है। असन्तोष के दुःख से दुखी वनकर वह चोरी करता है । तृष्णा से पराजित व्यक्ति के माया-मृषा और लोभ बढ़ते हैं, वह दुःखमुक्ति नहीं पा सकता८1 चोरी करने वाले के नाया-मृपा और लोभ बढ़ते हैं, वह दुःख-मुक्ति नहीं पा सकता ११
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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