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जैन दर्शन में आचार मीमासा
११९ (१) चक्षु-सुख (२) श्रोत्र-सुख (३) घ्राण-सुख (४) जिह्वा सुख (५) स्पर्शन-सुख (६) मन-सुख । प्रतिकूल वेदना के छह प्रकार हैं
(१) चतु-दुःख (२) श्रोत्र-दुःख ( ३) प्राण-दुःख (४) जिला-दुःख (५) स्पर्शन दुःख (६) मन-दुःख।
संज्ञा
(४) चार संज्ञाएं (पूर्वानुभूत विषय की स्मृति और अनागत की चिन्ता या विषय की अभिलापा) है
(१) आहार-संज्ञा (२) भय-संज्ञा (३) मैथुन-संज्ञा (४) परिग्रहसंज्ञा' । संस्कार (५) वासना-पांच इन्द्रिय और मन की धारणा के बाद की दशा है११ । उपादान
महात्मा बुद्ध ने कहा-भिक्षुओ! जिस प्रकार काठ वल्ली, तृण तथा मिट्टी मिलाकर 'आकाश' ( खला ) को घेर लेते हैं और उसे घर कहते हैं, इसी प्रकार हड्डी, रगें, मांस तथा चर्म मिलकर आकाश को घेर लेते है और उसे 'रूप' कहते हैं। ___ अॉख और रूप से जिस विज्ञान की उत्पत्ति होती है, वह चतु-विज्ञान कहलाता है । कान और शब्द से जिस विज्ञान की उत्पत्ति होती है, वह श्रोत्रविज्ञान कहलाता है। नाक और गन्ध से जिस विज्ञान की उत्पत्ति होती है, वह घाण-विज्ञान कहलाता है। काय ( स्पर्शेन्द्रिय ) और स्पृशतव्य से जिस विज्ञान की उत्पत्ति होती है, वह काय-विज्ञान कहलाता है।
मन तथा धर्म (मन-इन्द्रिय के विषय ) से जिस विज्ञान की उत्पत्ति होती है, वह मनोविज्ञान कहलाता है।
उस विज्ञान में का जो रूप है, वह रूप-उपादान-स्कन्ध के अन्तर्गत है१२ ।
उस विज्ञान में की जो वेदना है, वह वेदना उपादानं-स्कन्ध के अन्तर्गत है, उस विज्ञान में की जो संज्ञा है, वह संज्ञा-उपादान-स्कन्ध के अन्तर्गत है, जो उस विज्ञान में के जो संस्कार है, वह संस्कार उपादान-स्कन्ध के अन्तर्गत है ।