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जैन दर्शन में आचार मीमांसा इन चार आर्य-सत्यों का निरूपण किया। दुःख । भगवान् महावीर ने कहा-पुण्य-पाप का वन्ध ही संसार है। संसार दुःखमय है । जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है, मरण दुःख है।
पाप-कर्म किया हुआ है तथा किया जा रहा है, वह सब दुःख है ।
महात्मा बुद्ध ने कहा-पैदा होना दुःख है, बूढ़ा होना दुःख है, व्याधि दुःख है, मरना दुःख है। विज्ञान
भगवान् महावीर ने कहा(१) जितने स्थूल अवयची हैं, वे सब पाँच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और
आठ स्पर्श वाले हैं-मूर्त या रूपी हैं । (२) चक्षु रूप का ग्राहक है और रूप उसका ग्राह्य है ।
कान शब्द का ग्राहक है और शब्द उसका ग्राह्य है । नाक गन्ध का ग्राहक है और गन्ध उसका ग्राह्य है। जीभ रस की ग्राहक है और रस उसका ग्राह्य है। काय ( त्वक् ) स्पर्श का ग्राहक है और स्पर्श उसका ग्राह्य है। मन-भाव (अभिप्राय) का ग्राहक है और भाव उसका ग्राह्य है। चक्षु और रूप के उचित सामीप्य से चतु-विज्ञान होता है। कान और शब्द के स्पर्श से श्रोत्र-विज्ञान होता है। नाक और गन्ध के सम्बन्ध से घ्राण-विज्ञान होता है। जीभ और रस के सम्बन्ध से रसना-विज्ञान होता है। काय और स्पर्श के सम्बन्ध से स्पर्शन-विज्ञान होता है ।
चिन्तन के द्वारा मनोविज्ञान होता है । इन्द्रिय-विज्ञान रूपी का ही होता है। मनो-विज्ञान रूपी और अरूपी दोनों का होता है। वेदना (३) अनुकूल वेदना के छह प्रकार हैं: