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जैन दर्शन में आचार मौमांसा १२१ प्रिय विपयो मे अतृप्त व्यक्ति के माया-मृषा और लोभ बढ़ते हैं, वह दुःख-मुक्ति नहीं पा सकता ।
परिग्रह में आसक्त व्यक्ति के माया-मृषा और लोभ वड़ते हैं, वह दुःखमुक्ति नहीं पा सकता।
दुःख आरम्भ से पैदा होता है २२ । - दुःख हिंसा से पैदा होता है २३ ।
दुःख कामना से पैदा होता है। ४ ।
जहाँ प्रारम्भ है, हिंसा, है, कामना है, वहाँ राग द्वेप है। जहाँ रागद्वेष है-वहाँ क्रोध, मान, माया, लोभ, घृणा, हर्ष, विपाद, हास्य, भय, शोक
और वासनाएं हैं२५ । जहाँ ये सब हैं, वहाँ कर्म (वन्धन ) है । जहाँ कर्म है, वहाँ संसार है; जहाँ संसार है, वहाँ जन्म है । जहाँ जन्म है, वहाँ जरा है, रोग है, मौत है। जहाँ ये हैं, वहाँ दुःख है २६ ।
भव-तृष्णा विपैली वेल है। यह भयंकर है और इसके फल बड़े डरावने होते हैं ।
महात्मा बुद्ध ने कहा-मनुष्य अपनी अांख से रूप देखता है। प्रियकर लगे तो उसमें आसक्त हो जाता है, अप्रियकर हो तो उससे दूर भागता है । कान से शब्द सुनता है, प्रियकर लगे तो उसमें आसक्त हो जाता है, अप्रियकर लगे तो उससे दूर भागता है। प्राण से गन्ध संघता है, प्रियकर लगे तो उसमें आसक्त हो जाता है, अप्रियकर लगे तो उससे दूर भागता है। जिह्वा से रस चखता है, प्रियकर लगे तो उसमे आसक्त हो जाता है, अप्रियकर लगे तो उससे दूर भागता है। काय से स्पर्श करता है, प्रियकर लगे तो उसमे आसक्त हो जाता है, अप्रियकर लगे तो उससे दूर भागता है। मन से मन के विषय (धर्म ) का चिन्तन करता है, प्रियकर लगे तो उसमें आसक्त हो जाता है । अप्रियकर लगे तो उससे दूर भागता है।
इस प्रकार आसक्त होनेवाला तथा दूर भागनेवाला जिस दुःख-सुख वा अदुख-असुख, किसी भी प्रकार की वेदना-अनुभूति का अनुभव करता है, वह उस वेदना में आनन्द लेता है, प्रशंसा करता है, उसे अपनाता है। वेदना को जो अपना बनाना है, वही उसमें राग उत्पन्न होना है। वेदना में जो राग है,