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खिराया जाता है । जिस प्रकार सोने में मिला हुआ मल तपाये जाने पर दूर हो जाता है, उसी प्रकार कर्मरज को बिना कर्मों का फल भोगे हुये नष्ट किया जा सकता है । इसलिये श्रावश्यक है कि हम अपने तप और सदाचरण के द्वारा पूर्व जन्म में किये हुये कर्मों को नष्ट करने में कदाचित् सफल हो सकते हैं । बहुत से लोगों का विचार है कि मनुष्य अपने भाग्य के इतने अधिक वश में है कि वह स्वतन्त्र रूप से कुछ कर ही नहीं सकता, किन्तु यह धारणा गलत है । मनुष्य कथंचित् कार्य करने में स्वतन्त्र है और कथंचित् भाग्य के वशीभूत । अगर ऐसा नहीं होता तो नये कर्मों का बंध होता ही नहीं । मनुष्य बहुत से कार्य तो ऐसे करता है जो पूर्व जन्म के कर्म फलस्वरूप होते हैं और बहुत से कर्म स्वतन्त्र भी करता है जिनका फल वह प्रागामी जन्मों में भोगता है ।
संसार के अन्य धर्मो में मनुष्य के कर्मो को रिकार्ड करने वाला एक अन्य कर्मचारी होता है जिसे यमराज आदि नामों से पुकारा गया है। मरने के पश्चात् जब किसी व्यक्ति की श्रात्मा यमराज के सामने पहुंचती है तो यमराज उसका रिकार्ड देखकर उसके लिये न्याय की उचित व्यवस्था करता है किन्तु जैन दर्शनकारों ने इस क्रिया को स्वचालित (Automatic ) बना दिया है। उसके कर्मों का रिकार्ड उसकी आत्मा में ही सूक्ष्म पुद्गल के परमाणुत्रों के रूप में रहता है और ये पुद्गल परमाणु स्वयं ही न्यूटन के नियम के अनुसार उसे स्वयं भिन्नभिन्न योनियों में आकर्षित करते रहते हैं । यही जैन कर्म सिद्धान्त की विशेषता है ।