SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक अरूपी पदार्थ है और इस कारण पोद्गलिक द्रव्य हाइड्रोजन से अनन्तगुणा हलकी है, इसलिये पुद्गल का सम्बन्ध छूट जाने पर वह प्रहंत के शरीर से निकल कर सीधी वहाँ तक चली जाती हैं जहा तक चारों ओर शुद्धात्माये विराजमान हैं । इससे आगे धर्म द्रव्य का अस्तित्व न होने के कारण वे आगे जा हो नही मकनी । इस स्थान को मिद्धशिला कहा गया है और यह स्थान लोक की मीमा पर स्थित है। इसके प्रागे अलोकाकाग प्रारम्भ होता है। इस क्रिया को मोक्ष प्राप्त करना कहा जाता है । कर्म पुद्गल का शरीर के अन्दर पाना प्राश्रव कहलाता है। उमका जीवात्मा से सम्पर्क होना बंध कहलाता है । विचार (गगादिक भाव) निरोध के द्वारा कर्मवर्गणाओं को प्राने से रोकना सवर कहलाता है और जीवात्मा जब कमवर्गणाओं से अपना सम्बन्ध विच्छेद करना शुरू कर देती है, उमे निर्जग कहते हैं । निजंग की क्रिया में कर्म पुद्गल के परमाणु धीरेधीरे भीड़ जाते हैं और जीवात्मा शनैः शनैः अगुद से शुद्ध होने लगती है। यह क्रिया दो तरह मे होती है-(१)मविपाक निर्जरा और (२) अविपाक निर्जरा । सविपाक निर्जरा का अर्थ है कर्मों का विपाक हो जाने के पश्चात् कर्मो का झड़ना। जिम प्रकार वृक्ष पर लगे हुये फल पक जाने पर स्वयं ही झड़ जाते हैं उमी प्रकार जब कर्मों की अवधि पूरी हो जाती है तो वह अपना फल देकर झड़ जाते हैं। दूसरी निर्जरा अविपाक निर्जरा है। इसमें विपाक होने से पहले ही तपश्चरण के द्वारा कर्मरज को
SR No.010215
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG R Jain
PublisherG R Jain
Publication Year
Total Pages103
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy