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के आचार्यों का वर्णन मिलता है-कलाचार्य, शिल्पाचार्य, और धर्माचार्य।' ये भेद ज्ञानक्षेत्र की दृष्टि से किये गये हैं और पूर्वोक्त पाँच भेष मुनि की बकाया विशेष से संबद्ध हैं। ये आचार्य अध्ययन-अध्यापन की दिशा में अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहते थे। शिक्षार्थी भी अपने शिक्षक के प्रति विनम्रता और सम्मान प्रदर्शित करता था। अध्यापक अनुशासन हीन छात्रों को शारीरिक दण्ड भी दिया करता था। दुविनीत शिष्य को यहां अडियल घोडे और अभद्र बैल की उपमायें दी गई हैं। इस सबके बावजूद शिक्षक और शिक्षार्थी के सम्बन्ध परस्पर स्नेह पूर्ण रहा करते थे, यह ध्वनित होता है।
३. जैन दर्शन का सामाजिक महत्त्व जैन दर्शन आत्मनिष्ठ धर्म है । वह समाज की अपेक्षा घटक को सुधारने के पक्ष में अधिक है । इकाई का सुधारना सरल भी होता है । इकाइयों के समुदाय से ही समाज का निर्माण होता है। इस प्रकार व्यक्तिनिष्ठ दर्शन समाजनिष्ठ दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। जैनधर्म का प्रत्येक सिद्धान्त व्यक्ति और समाज दोनों के लिये समान रूप से श्रेयस्कर सिद्ध होता है।
तीर्थकर महावीर ने तत्कालीन समाज व्यवस्था के दोषों को दूरकर एक निर्दोष और प्रगतिशील समाज की संरचना की जिसमें बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति को समान अधिकार दिया गया। प्रगति के समान साधन उपलब्ध किये गये और यज्ञ बहुल क्रियाओं से समाज को मुक्त किया गया। आत्म-शुद्धि पर जोर देकर क्रियाकाण्ड वाले धार्मिक वातावरण में नयी क्रान्ति की। ज्ञान और दर्शन की प्रतिष्ठा हुई। चारित्रिक शुद्धि से समाज को शुद्ध किया। शिर-मुण्डन की अपेक्षा राग द्वेषादिक विकारभावों के मुण्डन की ओर अधिक बल दिया गया।' यही थी महावीर की सांस्कृतिक क्रान्ति ।
समस्त समाज के लिये महावीर ने फिर यह समझाने का प्रयत्न किया कि मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा और संयमशील पराक्रम ये चारों अंग दुर्लभ हुआ करते हैं। मनुष्यत्व की दुर्लभता को बताकर जीवन में सम्बक पुरुषार्थी होने
१. ठाणाक, ३.१३५. २. उत्तराध्ययन, १.३८ ३. वोहापाहुर, १३५ ४. पत्तारि परमंगाण दुल्लहाणीह जन्तुगी। माणुसतं सुई सहा संवर्ममिव वीरिय ।।
उत्तराव्यवन, ३...