________________
१५. पूरे उत्साह के साथ सिखाना चाहिए। १६. शिक्षा बिना किसी अन्तराल के देना चाहिए। १७. किसी बात को छिपाना नहीं चाहिए। १८. बढ-मुष्टि नहीं होना चाहिए। १९. पुत्रवत् स्नेह करना चाहिए। २०. वह अपने उद्देश्य से पतित न हो सके, यह प्रयत्न करना चाहिए। २१. समस्त शिक्षा-प्रकारों को देकर उसे अभिवृद्ध कर रहा हूँ, ऐसा सोचना
चाहिए। २२. उसके साथ मैत्री भाव रखना चाहिए। २३. विपत्ति आ जाने पर उसे छोड़ना नहीं चाहिए। २४. सिखाने योग्य वातों को सिखाने में कभी चूकना नहीं चाहिए। २५. धर्म से गिरते देख उसे आगे बढ़ाना चाहिए।
___ आचार्य के प्रति इसी प्रकार शिष्यके भी कर्तव्यों का उल्लेख जैन-बौद्ध साहित्य में मिलते है। उनमें सेवा-शुश्रूषा, आदर-सम्मान आदि से सम्बद्ध कर्तव्य अधिक है।
जैनधर्म में पांच प्रकारके आचार का वर्णन मिलता है-सम्यग्दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार । इन पांचों प्रकार के आचारों का सम्यक् परिपालन करनेवाला आचार्य कहलाता है।' आचार्य परमेष्ठी के छत्तीस गुण होते है- आचारवान्, श्रुताधार, प्रायश्चित्त, मायापायकथी, दोषभाषक, अश्रावक, सन्तोषकारी और निर्णायक ये आठ गुण, दो, निषद्यक, बारहतप, सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, स्वाध्याय, वंदना, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक तथा अनुद्दिष्टभोजी, शव्याशन, आरोगभुक्, क्रियायुक्त, व्रतवान्, ज्येष्ठ सद्गुणी, प्रतिक्रमी, और षण्मासयोगी।'
आचार्यों के अन्य प्रकार से भी पांच भेद किये गये हैं- गृहस्थाचार्य, प्रतिष्ठाचार्य, बालाचार्य, निर्यापकाचार्य और एलाचार्य । ठाणांग में तीन प्रकार
१. भगवती आराधना, ४१९ २. बोषपाहुड टीका मे उद्धृत, अनगारधर्मामृत, ९.७६; मूलाचार (९६८) तथा भगवती
माराधना (४८१) आदि प्रन्योंमें भी आचार्य और शिष्योंके बीच रहने वाले सम्बन्धों पर प्रकाश डाला गया है।