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इनके अतिरिक्त सारिपुत्त, मौद्गल्यायन, आनन्द, चापा आदि भिक्षु-भिक्षुणियों का भी उल्लेख हुआ है। अराडकलाम, उद्दकरामपुत्र, काश्यपबन्धु आदि शिक्षकों किंवा आचार्यों के भी उल्लेख बौद्ध साहित्य में मिलते है।
ये सभी शिक्षक अपने-अपने धर्म, सम्प्रदाय अथवा संघ में निर्धारित नियमों के अनुसार शिष्य के साथ समुचित व्यवहार किया करते थे। शिक्षक और शिष्य के मधुर सम्बन्धों का प्रभाव समाज को सुयोग्य और सुनियमित मार्ग पर ले जाने के लिए समुचित वातावरण की संरचना करने में कार्यकारी होता है। विनम्रता, अनुशासन और कर्तव्यबोध की त्रिवेणी शैक्षणिक वातावरण को पवित्र, निश्छल तथा निर्द्वन्द बनाने की क्षमता प्रदान करता है। राष्ट्र की चतुर्मुखी प्रगति इसी पर विशेष रूप से अवलम्बित होती है।
शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच स्थापित सम्बन्धों पर श्रमण साहित्य के अनेक उल्लेख मिलते है । मिलिन्दपञ्हो' मे शिक्षक के कर्तव्यों की एक लम्बी शृङखला दी हुई है१. आचार्य शिष्य का पूरा ध्यान रखे। २. कर्तव्य और अकर्तव्य का सदा उपदेश देता रहे । ३. किसमें सावधान रहे और किसमें नहीं, इसका उपदेश देते रहना चाहिए । ४. शिष्य के शयन आदि पर ध्यान रखना चाहिए। ५. बीमार होने पर उसका ध्यान रखना चाहिए। ६. उसने क्या पाया है, क्या नही, इसका ध्यान रखना चाहिए। ७. उसके विशेष चरित्र को जानना चाहिए। ८. भिक्षा पात्र में जो जो मिले, उसे बांटकर खाना चाहिए। ९. उसे सदा उत्साह देते रहना चाहिए। १०. अमुक आदमी की संगति कर सकते हो, यह निर्देश देना चाहिए। ११. अमुक गांव में जा सकते हो, यह बता देना चाहिए। १२. अमुक बिहार में जा सकते हो, यह बता देना चाहिए। १३. अमुक के साथ गप्पें नहीं करनी चाहिए। १४. उसके दोषों को क्षमा करना चाहिए।
१. मिलिन्द प्रश्न, पृ. ११९