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व पक्ष को दहेज देने की परम्परा का भी उल्लेख मिलता है। विवाह के बाद विभिन्न उत्सवों की भी परम्परा रही है।
विवाह की संपूर्ण क्रियाओं के लिए एक सुसज्जित मण्डप बनाया जाता था। उसके मुखद्वारों के दोनों ओर मंगल द्रव्य रखे जाते थे, मध्य में वेदिका बनाई जाती थी, वेदिका पर शास्त्रादि मांगलिक द्रव्य संयोजित किये जाते थे, दीपक जलाये जाते थे, स्नान संपन्न वर-वधु वेदिका के समक्ष बैठते थे, और उसपर मयोजित जिन प्रतिमा का अभिषिक्त जल उनपर छिड़का जाता था वधु का पिता वरके हाथ पर जलधारा करता और दहेज, दानादि देकर विवाहविधि संपन्न हो जाती थी। चैत्यालय में जाकर वर-वधु पूजन भी किया करते थे।'
संस्कार का साधारणतः तात्पर्य है-किसी भी वस्तु को अधिकाधिक उपयोगी बना देना।' इस साधारण अर्थ का सम्बन्ध व्यक्तित्व के विकास से जोड़ दिया गया और फलतः संस्कार व्यक्ति के कर्म, भाव, आध्यात्मिक, मानसिक
और शारीरिक सुद्धि से संबद्ध हो गया। इसी आधार पर उसे 'वासना' भी कहा मवा है। वासना का सम्बन्ध पूर्वजन्मकृत कर्मों से भी है। यही कर्म संसार का कारण बनता है। अविद्या के अभ्यास रूप संस्कारों के द्वारा मन स्वाधीन न रहकर विक्षिप्त हो जाता है। वही मन विज्ञान रूप संस्कारों के द्वारा स्वयं ही मात्मस्वरूप में स्थिर हो जाता है।
वैदिक संस्कृति में संस्कार के इस काभ्यन्तर स्वरूप को न लेकर उसके बाह्य स्वरूप पर अधिक विचार किया गया है। उसमें संस्कारों की संख्या साधारणतः सोलह दी गई है- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोनयन, विष्णुवलि, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चोल, उपनयन, चारवेदवत, समाबर्तन और विवाह । गौतम, वैखानस आदि ने इस संख्या में कुछ और वृद्धि की है।
१. उत्तराध्ययन, सुब्बोषा, पत्र ८८; २. नाविपुराण, ७.२६८-२९.. ३. संस्कारो नाम स भवति यस्मिजाते पदार्य भवति योयः कस्यचिदर्थस्य, जेमिनिसूत्र,
३.१.३ पर शबरकी टीका. ४. समाधिमतक, इष्टोपवेशटीका, ३७