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आचार्य जिनसेनने वैदिक संस्कृति में मान्य संस्कारों का जैनीकरण कर दिया और उनके तीन वर्ग कर दिये- १. गर्भान्वयक्रिया, २. दीक्षान्वयक्रिया, और कन्ययक्रिया। १. गर्भान्वयक्रियायें :
इस वर्ग में श्रावक की ५३ क्रियाजों का वर्णन किया गया है। इन क्रियाओं का सम्बन्ध गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यन्त नियोजित हुआ है। ये क्रियायें इस प्रकार हैं- १. गर्भाधान (विषयानुराग के बिना केवल सन्तानप्राप्तिकी कामना से अर्हन्त जिन की पूजन पूर्वक समागम करना), २. प्रीति ३. सुप्रीति, ४. धृति, ५. मोद, ६. प्रियोदभव अथवा जातकर्म, ७. नामकर्म, ८. बहिर्मान, ९. निषद्या, १०. अन्नप्राशन, ११. व्युष्टि (वर्षगांठ) १२. केशवाप (मुण्डन), १३. लिपिसंख्यान, १४. उपनीति (आठवें वर्ष में यशोपवीत), १५. व्रतचर्या (गुरू के पास अध्ययन), १६. व्रतावरण (समावर्तनअष्टमूल गुणों का पालन), १७. विवाह, १८. वर्णलाभ (उत्तराधिकार), १९. कुलचर्या, (गृहस्थके षट्कर्मों का पालन करना), २०. गृहीशिता (शुभ वृत्ति, शास्त्राभ्याश और चारित्रपालन पूर्वक उन्नति करना), २१. प्रशान्ति (पुत्र को गृहस्थी का भार सौंपकर धर्मध्यान करना), २२. गृहत्याग, २३. दीक्षा ग्रहण (उत्कृष्ट श्रावक की दीक्षा लेना), २४. जिनरूपता (मुनिव्रत ग्रहण करना), २५. मौनाध्ययनवृत्ति, २६. तीर्थकृद्भावना, २७. गुरुस्थानाभ्युपगमन, २८. गणोपग्रहण, २९. स्वगुरुस्थानसंक्रान्ति, ३०. निःसंगत्वात्मभावना, ३१. योगनिर्वाणसंप्राप्ति, ३२. योगनिर्वाणसाधन, ३३. इन्द्रोपपद, ३४. इन्द्राभिषेक, ३५. इन्द्रविधिदान, ३६. इन्द्रत्याग, ३७. अवतार, ३९. हिरण्योत्कृष्टजन्मग्रहण (चरमशरीर धारण करना), ४०. मन्दरेन्द्राभिषेक, ४१. गुरुपूजोपलम्भन, ४२. यौवराज्य, ४३. स्वराज्य, ४४. चक्रलाभ, ४५. दिग्विजय, ४६. चक्राभिषेक, ४७. साम्राज्य, ४८. निष्क्रान्ति, ४९. योगसम्मह (केवलशान प्राप्त करना) ५०. आर्हन्त्य, (अष्ट प्रातिहार्य प्राप्त करना),५१. बिहार (धर्मचक्र को आगे रखकर उपदेश देना), ५२. योगत्याग, (बिहार त्यागकर योग निरोध करना), और ५३. अनिवृत्ति (सिद्धपद प्राप्त करना)।
इन क्रियाओं में योगनिर्वाणसाधन तक की बत्तीस क्रियाबों का सम्बन्ध इहलोक से है। शेष क्रियायें परलोक से संबद्ध हैं। ये क्रियायें आध्यात्मिक, सामाजिक तथा वैयक्तिक विकास की भूचिका हैं।
१. गादिपुराण, ३८. ७०-३१०.