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विवाह व्यवस्था :
काम वासना व्यक्ति की स्वाभाविक इच्छा है। उसे संयमित बार नियन्त्रित करने की दृष्टि से विवाह की व्यवस्था की गई है। यह व्यवस्था साधारणतः समान रही है फिर भी समय, परिस्थिति और संस्कृति के अनुसार उसमें किञ्चित् भिन्नता भी मिलती है। जैन संस्कृति में विवाह को अनिवार्य तत्त्व के रूप में प्रतिपादित नहीं किया गया पर उत्तरकाल में उसे परिवार के सम्यक् संचालन के लिए आवश्यक-सा बना दिया गया। परिवार की सम्यक् व्यवस्था, वंश परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए सन्तान-प्राप्ति, सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का निर्वाह तथा यौन सम्बन्धों का नियन्त्रण जैसे तत्त्व विवाह के प्रमुख उद्देश्य रहे हैं।
वैदिक संस्कृति में विवाह के आठ प्रकार बताये गये हैं-१. ब्राह्म, २. देव, ३. आर्ष ४. प्राजापत्य, ५. आसुर, ६. गान्धर्व, ७. राक्षस, और ८. पैशाच। इनमें प्रथम चार प्रकार प्रशस्त है और शेष चार प्रकार अप्रशस्त हैं। जैन संस्कृति में चार प्रकार के विवाहों का वर्णन अधिक मिलता है१. माता, पिता द्वारा व्यवस्थित', २. क्रय-विक्रय विवाह', ३. स्वयंवर विवाह' और गान्धर्व विवाह । इनमें प्रथम दो प्रकार जनसाधारण में प्रचलित थे और अन्तिम दो प्रकारों को राजन्य वर्ग में प्रश्रय मिला था।
विवाह सम्बन्ध में अनुलोमात्मक स्थिति पर भी ध्यान दिया जाता था। साथ ही समान वय, धर्म, रूप, सील, शिक्षा और वैभव पर भी विचार करना बावश्यक था। सप्त व्यसनों में फंसे व्यक्ति को कोई भी अपनी कन्या नहीं देता था।
विवाह का निश्चय हो जाने पर एक उत्सव होता था। वर पक्ष वारात लेकर वधु पक्ष के घर जाता था। वहाँ सिद्ध भगवान की प्रतिमा के समक्ष वेदी में संस्थापित अग्नि की सप्तपरिक्रमाकर वर वधु का पाणिग्रहण करता था। इसी समय दोनों को जैन श्रावक के बारह व्रतों के परिपालन करने का भी बत लेना पड़ता था। बाद में विवाहोत्सव में सम्मिलित व्यक्ति वर-वधु को आशीर्वाद देते और चैत्यालय की वन्दना पूर्वक यह उत्सव समाप्त हो जाता था। विवाह में वधु पक्ष द्वारा वर पक्ष को तथा कभी-कभी वर पक्ष द्वारा
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१. नायाधम्मकहाबो, १.५.५८ २. वही, १.१४.१०१, उत्तरामचन, सुखबोचा, पत्र ९७ ३. वही, १.१६.१२२