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५. प्राचीन संबंधों और धारणावों का प्रस्तुतीकरण। ६. अन्तर्वृत्तियों का उद्घाटन। ७. आल्यान संबंधी चित्रों में प्रणयलीलाओं, नाना प्रकार के सम्वेदनाओं एवं
विविध प्रकार की मनोदशाओं की अभिव्यंजना। ८. कमलपंखुड़ियों की मृदुलता और कमनीयता का यथार्थ अंकन । ९. भावों का चित्रण और तदनुकूल रमों का सृजन । १०. स्थिति जनित लघुता का गति शील रेखाओं द्वारा मूर्तिकरण । ११. हाथों की मुद्राओं और आंखों की चितवनों से हृदयगत विभिन्न भावनाओं
का चित्रण। १२. अटूट, प्रवाहमय और भव्य रेखाओं द्वारा सजीव, सशक्त और सौन्दर्यपूर्ण
अंकन । १३. रूप-भावना और आकृति सौन्दर्य का औचित्य । १४. अंगुलियों की गति एवं विभिन्न हस्त मुद्राओं द्वारा विनय, दान, आशा,
निराशा प्रभृति की अभिव्यक्ति । १५. भवन, पशुओं और मनुष्यों के आलेख में सजीवता।
४. काष्ठ शिल्प
शिल्प के लिए काष्ठ का प्रयोग गुजरात और राजस्थान में अधिक हुआ। वहाँ के उष्ण वातावरण में उसके स्थायित्व में वृद्धि हुई और सुविधा तथा सरलता के कारण लोकप्रिय बना। काष्ठ शिल्प का निर्माण सत्रहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी के बीच सर्वाधिक हुआ। इसका उपयोग आवास गृह के अलंकरण तथा मूर्ति और मन्दिर के निर्माण में देखा जाता है।
जैनधर्मावलम्बियों ने अपनी आस्था को जागरित रखने तथा धार्मिक वातावरण को निर्मित करने की दृष्टि से अपने आवासगृह के स्तम्भों, मदलों, गवांक्षों, बारों, छतों, तोरणों, भित्तियों आदि पर काष्ठकला का प्रदर्शन किया। कलाकारों के बीच अष्टमंगल, पत्र-पुष्प लतायें, द्वारपाल, पशु-पक्षियों, मानवाकृतियों, तीर्थकरों, शासन देवी-देवतामों आदिका शिल्पांकन विशेष रुचिकर था। इसके निमित्त द्वार-कपाटों को समतल अथवा जालीदार बनाया जाता। कहीं-कहीं चौखटों को चौड़ा रखते और दरवाजे के बिना ही काम चलाया जाता। मुस्लिम प्रभाव के कारण मेहराबदार गवाक्षों की भी संयोजना हुई। स्तम्भ