________________
३७८
गया । इधर लगभग चौदहवीं शताब्दी से पुनः पटचित्र उपलब्ध होने लगे । आदिपुराण, हरिवंशपुराण आदि ग्रन्थों में चित्रपट की पूर्व परम्पराके उल्लेख मिलते हैं । उसी परम्परा में मध्यकालीन पटचित्र अनुस्यूत हैं। श्री अगरचन्द नाहटा के संग्रह में एक 'चिन्तामणि' नामक पटचित्र १३५४ई. का है । उसमें पार्श्वनाथ, धरणेन्द्र, पद्मावती आदि देवी-देवता चित्रित किये गये हैं। एक अन्य 'मंत्र पट' नामक पटचित्र साराभाई नबाब के पास है जो भावदेवसूरि के लिये १४१२ ई. में बनाया गया था । कुमारस्वामी के पास संगीत पटचित्र १६ वीं शताब्दी का हैं, जिसमें पार्श्वनाथ, समवशरण आदि का अंकन है । इसी प्रकार के और भी अन्य प्रकार के चित्र उपलब्ध हैं जो कला की दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण हैं । '
(५) रंगावलि अथवा धूलि चित्र :
एक अन्य प्रकार की भी चित्र परम्परा का यहां उल्लेख किया जा सकता है जिसे रंगावली या धूलिचित्र कह सकते हैं। यशस्तिलकचम्पू में इस प्रकार के चित्रों से आस्थान मण्डप को सुशोभित किये जाने का उल्लेख मिलता है । वहाँ कुंकुम रंगे मरकत पराग से तथा मालती आदि विविध पुष्पों से रचित रंगावलियों का उल्लेख है। ऐसी चित्रावलियों को 'क्षणिकचित्र' कहा गया है । प्रतिष्ठाओं के सन्दर्भ में मांडने आदि की भी रचना की जाती है। जैन सिद्धान्त भवन आरा में संग्रहीत इन्द्रध्वज पाठ तथा दशलक्षणादि व्रतोद्यापन के अन्त में इस प्रकार के अनेक मांडनों के चित्र अंकित है। वहीं एक " जैन चित्र पुस्तक संग्रह" भी उपलब्ध है जिसमें जैन संस्कृति से सम्बद्ध मुगलकालीन १३५ चित्र संग्रहीत हैं। आरा संग्रहालय में ही 'नेत्र स्फुरण' नामक संग्रह है जिसम नेत्रों के हावों-भावों का सुन्दर विश्लेषण किया गया है ।
इस प्रकार समूची जैन चित्रकला के सर्वेक्षण से हम उसमें निम्न लिखित विशेषतायें पाते हैं ।
१. रूप, रंग, आकार और सज्जा का समन्वयन ।
२. धार्मिक भावनाओं की सफल अभिव्यक्ति ।
३. भक्तों के द्वारा की जाने वाली भक्ति का साङ्गोपाङ्ग रूपाङ्गन ।
४. प्राचीन संबंधों और धारणाओं का प्रस्तुतीकरण ।
१. भारतीय सांस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पू. ३७३
२ जैन चित्रकलाका संक्षिप्त सर्वेक्षण - श्रीमती सुशीला देवी जैन, गुरु गोपालदास वरैया स्मृति ग्रंथ, सागर, १९६७.