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चतुष्कोणीय, गोल अथवा शुण्डाकार रहते । इस प्रकार कहीं-कहीं सारा घर काष्ठ शिल्प से अलंकृत करा लिया गया है।
घर में मन्दिर बनाने की परम्परा उत्तरकाल में प्रारम्भ हुई। फलतः गुजरात के जैन गृहस्थों ने अपने भवनों में अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार सुन्दर से सुन्दर मन्दिर बनवाये। अहमदाबाद, पाटन, बड़ोदा, पालीताना, खम्भात आदि नगरों में इनका निर्माण कार्य हुआ। अहमदाबाद का शांतिनाथ-देरासर (१३९० ई.) तथा पाटन का लल्लूभाई दन्ती का घर-देरासर उल्लेखनीय है। इनके मदल और तोरण तथा मण्डप और उसकी छत विशेष दर्शनीय है। यहाँ देवकोष्ठियों, नर्तकियों, और संगीत मण्डलियों के अच्छे अंकन हुए हैं। अष्ट-कोणीय स्तूप का भी सुन्दर संयोजन है।
काष्ठ शिल्प का उपयोग मूर्तियों के अंकन में भी हुआ। कहा जाता है, महावीर के जीवनकाल में उनकी चन्दनकाष्ठ प्रतिमा बनायी गई थी, पर वह आज उपलब्ध नहीं होती। यह स्वाभाविक है भी क्यों कि काष्ठ उतना स्थायी नहीं रहता जितना पाषाण । पूजा-प्रतिष्ठा प्रारम्भ हो जाने पर इन काष्ठ मूर्तियों का प्रचलन और भी कम हो गया।
वर्तमान में उपलब्ध काष्ठ-मूर्ति-शिल्प में नारी मूर्तियों की विविध मुद्राओं में अनुकृति अधिक मिलती है। नृत्यांगनाओं की मूर्तियों में पायल बांधती हुई मूर्ति विशेष आकर्षक है। कुछ आयताकार पट्टियां भी प्राप्त हुई है जिनपर जैन साधुओं के स्वागत का तथा राजकीय यात्रा का दृश्यांकन हुआ है। बैलगाडियों, अश्वारोहियों और गजारोहियों का भी शिल्पांकन स्वाभाविकता से ओतप्रोत है।
५. अभिलेखीय व मुद्राशास्त्रीय शिल्प
अभिलेखों तथा मुद्राबों पर भी चित्रांकन हुआ है। कंकाली टीला मथुरा से प्राप्त आयागपट्ट पर (प्रथमशती) महिला युगल का अंकन है । इसी प्रकार १३२ ई. की सरस्वती की मूर्ति भी उपलब्ध होती है।
गुप्तकालके अभिलेखों में रामगुप्त द्वारा प्रतिष्ठापित मूर्तियों के पादपीठ पर अंकित लेख महत्त्वपूर्ण हैं। उदयगिरि (विदिशा) मथुरा, कहाऊँ
१. काष्ठशिल्प-जे. विनोद प्रकाश द्विवेदी
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