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साया और प्रारम्भ से ही इस ओर अपनी प्रतिभा को उन्मेषित किया। चिन-- कला के समूचे इतिहास को देखने से पता चलता है कि इस क्षेत्र में जैनधर्म कर पर्याप्त योगदान हुआ है। उसके साहित्य में भी चित्रकला के प्राचीन उल्लेख मिलते हैं।
नायाधम्मकहाओ में चित्रकला की दृष्टि से कुछ महत्वपूर्ण बातों का पता चलता है। वहाँ धारणा देवी के शयनागार के वर्णन के प्रसंग में यह कहा गया है कि प्रासाद को लताओं, पुष्पबल्लियों और उत्तम चित्रों से अलंकृत, किया गया था। यहीं एक ऐसी चित्रकार श्रेणी का भी उल्लेख है जिसे राजकुमार मल्लदिक्ष ने प्रमदवन में चित्रशाला बनवाने के लिए निमन्त्रित किया था। उस समय ऐसे भी चित्रकार थे जो वस्तु के किसी एक अंग को देखकर उसके संपूर्ण अंग को चित्रित करने की क्षमता रखते थे। मल्लिकुमारी के पादांगुष्ठ को देखकर एक चित्रकारने उसकी सर्वाङ्ग आकृति को चित्रित कर दिया। यही मणिकार श्रेष्ठि की चित्रशाला का भी उल्लेख हुआ है।'
उत्तरकालीन साहित्य में चित्रकला और उसके प्रकारों का भी वर्णन मिलता है। रविषेणाचार्य ने दो प्रकार के चित्र बताये हैं-शष्क और द्रव । चन्दनादि द्रव पदार्थों से निर्मित चित्र द्रवचित्र है। चित्रकर्म के अन्तर्गत रेखांकन करना अथवा बेलबूटा आदि बनाना मूर्तिकर्म है तथा लकड़ी हाथीदांत की चित्रकारी करना पुस्तकर्म है। वरांगचरित, आदिपुराण, हरिवंश पुराण यशस्तिलकचम्पू, गद्यचिंतामणि आदि ग्रन्थों में चित्रकला का वर्णन मिलता है।
यहाँ हम चित्रकला के कुछ प्रमुख भेदों पर विचार कर रहे हैं(१) भित्तिचित्र, (२) कर्गलचित्र, (३) काष्ठचित्र, (४) पटचित्र, (५) रंगावलि अथवा धूलिचित्र। (१) भित्तिचित्र :
जैन स्थापत्य में प्राचीनतम भित्तिचित्र शित्तनावासल के जैन गुफामन्दिर में मिलते हैं जिसे पल्लववंशी महन्द्रवर्मन प्रथम ने बनवाया था। इसमें एक पलाशय का चित्र है जहाँ पत्र-पुष्प आदि का चयन करनेवाली मानवान
१. नापापम्मकहानो १.९ २. वही, ८.७८ ३. वही, १३.९९ ४. पद्मपुराण २४. ३६-४०