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________________ ३६५ आबू आदि स्थानों परमंदिर बनवाये जो भारतीय कला की दृष्टि से अनुपम रत्न हैं। गमरमर का बना उनका लुणवसही का मन्दिर प्रसिद्ध ही है। चित्तोड़गढ का कीर्तिस्तम्भ मध्यकालीन जैन स्थापत्य का एक सुन्दर उदाहरण है। इसके काल-निर्धारण में मतभेद है। बारह से पन्द्रहवीं शताब्दी के बीच विद्वान इसका निर्माण मानते है। समय-समय पर इसमें विकास भी हुआ है। गुंबद और शिखर इसी विकास का परिणाम कहा जाता है। किन्तु गर्भगृह, अंतराल और संयुक्त मण्डप का निचला भाग पुराना माना जाता है। चित्तोड़ के ही दो मंदिर और उल्लेखनीय हैं श्रृंगार चौरी और सात-बीसडयोढी। श्रृंगार चौरी १४४८ ई. का बना हुआ है। यह पंचरण प्रकार का है जिसमें गर्भगृह, तथा उत्तर-पश्चिम दिशा से संलग्न चतुष्कियाँ है। ऊपर एक गुंबद है तथा भित्तियों पर अलंकृत शैली में शासन देवी-देवताओं की मुर्तियाँ खुदी हुई है। जैसलमेर के दुर्ग में भी अनेक जैन मंदिर मिलते हैं, जिनका समय लगभग १५ वीं शताब्दी माना जा सकता है। इनमें गर्भगृह, मुखमण्डप, देवकुलिकायें आदि सभी अलंकृत शैली में निर्मित हुए है। यहाँ का पार्श्वनाथ का मंदिर अधिक प्राचीन है। बीकानेर के पार्श्वनाथ मंदिर में परंपरागत और मुगल दोनों शैलियो का उपयोग हुआ है। यहाँ चितामणिराव बीकाजी तया नेमिनाथ के मंदिर भी उल्लेखनीय है । इसी प्रकार नागदां, जयपुर, कोटा, किशनगढ, मारोठ, सीकर, अयोध्या, वाराणसी, त्रिलोकपुर, आगरा, फीरोजपुर, आदि स्थानों पर भी मध्यकालीन जैन मन्दिरों के सुन्दर उदाहरण मिलते है। पश्चिम भारत में जैन कला का पुनरुत्थान राणा लाखा तथा उसके उत्तराधिकारियों ने किया। राजा कुम्भी (सन् १४३८-६८) का उनमें विशेष योगदान रहा है। उन्होंने चित्तोड को कला केन्द्र बनाया और नागर-शैली का विकास किया। यह दिगम्बर जैन सम्प्रदाय का केन्द्र रहा है। पश्चिम भारत की इस कला शैली में फर्ग्युसन के अनुसार मध्यशैली की अभिव्यक्ति हुई है जो नागर, सोलंकी और बघेल शैलियों का समन्वित रूप है। इसे चतुर्मुख मंदिर अथवा सर्वतोभद्र मंदिर का प्रकार कहा जा सकता है। मेवाड़ का रणकपुर मंदिर इस शैली का प्रमुख उदाहरण है। इसका निर्माण सन् १४३९ में हुआ। इसमें २९ बड़े कक्ष और चार सौ बीस स्तम्भ है। कुल मिलाकर ३७१६ वर्ग मीटर क्षेत्र में यह मंदिर फैला हुआ है। गर्भगृह के अंदर सर्वतोभद्र प्रतिमा स्थापित है। यह अत्यंत अलंकृत और प्रभावक स्थापत्य का नमूना है।' १. पूर्व-पश्चिम भारत, कृष्ण देव तथा गं. उमाकान्त शाह ।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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