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इन गुफागों के अतिरिक्त और भी अनेक जैन गफायें हैं जो शिल्पादि की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। उन सभी का यथाक्रम अध्ययन अपेक्षित है ।
३. जैन मन्दिर शेली प्रकार:
___ वास्तुकला की चरम परिणति मन्दिरों के निर्माण में होती है। इस क्षेत्र में तीन शैलियों का उपयोग किया गया है- नागर, वेसर और द्राविड़। नागरशैली में गर्भगृह चतुष्कोणी रहते हैं और उनके ऊपर झुकी हुई रेखाओं से संयुक्त छत्ते के समान शिखर रहता है। इनका प्रचलन दक्षिण में तो कम रहा पर पंजाब, हिमालय, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, बंगाल आदि प्रदेशों में अधिक हआ। इसमें शिखर गोलाकार होता है और शिखर के ऊपर कलश लगा हुमा रहता है। बेसर शैली में शिखर की आकृति वर्तुलाकार होती है और वह ऊपर उठकर चपटी रह जाती है । मध्यभारत में इसका प्रयोग अधिक हुआ। द्राविड शैली में मन्दिर स्तम्भ की आक्रति ग्रहण करता है और ऊपर सिकुड़ता जाता है। अन्तमें वह स्तूपिका का आकार ग्रहण कर लेता है। दक्षिण में इसका प्रयोग अधिक हुआ है।
डॉ. हीरालालजी ने प्राचीनतम बौद्ध, हिन्दू और जैन मन्दिरों की पांच बैलियों का उल्लेख किया है१. समतल छत वाले चौकोर मन्दिर जिनके सम्मुख एक द्वारमंडप रहता है।
जैसे सांची, तिगवा और एरण के मन्दिर है। २. द्वार मंडप और समतल छतवाले वे चौकोर मन्दिर जिनके गर्भगृह के
चारों ओर प्रदक्षिणा भी बनी रहती है। ये मन्दिर कभी कभी दुतल्ले भी बनते थे। जैसे नाचना-कुठारा का पार्वती मंदिर तथा भूमरा
(म.प्र.) का शिवमन्दिर (५-६ वीं शती)। ३. चौकोर मंदिर जिनके उपर छोटा या चपटा शिखर भी बना रहता है।
जैसे-देवगढ़ का दशावतार मंदिर तथा बोधिगया का महाबोधि मंदिर। ४. वे लम्बे चतुष्कोण मंदिर जिनका पिछला भाग अर्धवृत्ताकार रहता है व
छत कोठी (वैरल) के आकार का बनता था। जैसे- बोडों की चैत्यशालायें, और उस्मानाबाद जिले के तेर मंदिर । नागर और द्राविड़
लियां इसी प्रकार के अन्तर्गत आती हैं। १. भारतीय संस्कृति में बैन धर्म का योगदान, पृ. ३१८.