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सरस्वती देवी:
जैसा हम देख चुके है, जैन कला में सरस्वती देवी की भी मूर्ति बहुत लोकप्रिय रही है। मथुरा के जैन शिल्प में प्राप्त सरस्वती की मूर्ति प्राचीनतम कही जा सकती है। उसे आचार दिनकर में श्वेतवर्णा, श्वेतवस्त्रधारिणी, हंसवाहना, श्वेतसिंहासनासीना, भामण्डलालंकृता और चतुर्भुजा बताया गया है।' उसकी चार भुजाओं में से बायीं भुजाओं में श्वेतकमल और वीणा तथा दायीं भुजाओं में पुस्तक और अक्षयमाला रहती है। कहीं-कहीं एक हाथ अभयमुद्रा में
और दूसरा हाथ जान मुद्रा में रहता है। शेष दो हाथों में अक्षमाला और पुस्तक रहती है। जैन ग्रन्थों में सोलह विद्या देवियों का भी उल्लेख मिलता है जिन्हें प्रायःशासन यक्षियों के रूप में पूजा जाता है।' अष्ट मातृकायें और दिक्पाल :
__ जैन शिल्प में अष्ट मातृकाओं का उल्लेख मिलता है-- इन्द्राणी, वैष्णवी कौमारी, वाराही, ब्रह्माणी, महालक्ष्मी, चामुण्डी, और भवानी। इनमें प्रथम चार की स्थापना पूर्वादि दिशाओं में और शेष चार की स्थापना आग्नेयादि दिशाबों में की जाती है।
इसी तरह दस दिक्पाल और उनकी पत्नयों का भी वर्णन मिलता है। इन्द्र, अग्नि, छाया, नैऋत्य, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, सोम और धरणेंद्र ये दस दिक्पाल है और शची, स्वाहा, छाया निर्ऋति, वरुणानी, वायुवेगी, धनदेवी, पार्वती, रोहिणी और पद्मावती ये क्रमशः दस दिग्पालो की पलियां है । तीर्थकरों की माताओं की सेवा करने वाली छ दिक्कुमारियों का भी उल्लेख आता हैश्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी । त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र में इनकी संख्या छप्पन कर दी गयी। क्षेत्रपाल:
जैन तीर्थक्षेत्रों की रक्षा करने की दृष्टि से क्षेत्रपालों की भी कल्पना की गई है। उनकी संख्या निश्चित नहीं पर कुंकुम, तेल, सिन्दूर आदि से उनकी
१. बाचार दिनकर, उदय ३३, पृ. १५५ २. सोलह विद्या देवियां इस प्रकार मानी गई है- रोहणी, प्राप्ति, वण, श्रष्चला
वांकुशा, जाम्बूनदी, पुरुषदत्ता, काली, महाकाली, गौरी, गांधारी, ज्याला मालिनी, मानवी, रोटी, अच्युता, मानसी, और महामीनसी । श्वेताम्बर परम्परा में जाम्बूनदी के स्थान पर चक्रेश्वरी का नामोल्लेख मिलता है। चतुर्विशति देवी-देवतागों के विषय में भी कुछ मतभेद है। विशेष विवरण के लिए देखिये, बन प्रतिमा विज्ञान, पृ. १२५.