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कहीं-कहीं पूजा का विधान अवश्य है।' वीभत्सरूप और हाथों में सिमित आयुधलिये क्षेत्रपालों की स्थापना की जाती है । यह जैन कला का उत्तरकालीन रूप है। पद्मावती, क्षेत्रपाल आदि देवी-देवताओं की पूजा का आचार्योंने बहुत विरोध किया है। उसकी मूल संस्कृति से यह विधान मेल भी नहीं खाता।
नवग्रह और मनमेश :
जैनकला में ग्रहों की स्थिति को भी स्वीकार किया गया है। पहले उनकी संख्या आठ थी बाद में नव कर दी गई। ये नवग्रह है- सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, वहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, और केतु । इनके क्रमश: दस वाहन ये हैंसप्ताश्व, रथ, अश्व, भूमि, कलहंस, हंस, अश्व, कमठ, सिह और पन्नग।'
यहाँ नैगमेश की मूर्ति का भी उल्लेख कर देना आवश्यक है। उसकी मुखाकृति बकरे के समान है, कंधों पर बालक बैठे हुए है, बायें हाथ से भी दो शिशुओं को धारण किये हुए है और कहीं-कही दायां हाथ अभय मुद्रा में है। नैगमेस की ये विभिन्न मुर्तियां मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त हुई है और कुषाणकालीन है। उत्तरकाल में भी उनका निर्माण होता रहा है। मष्टल:
अष्ट मंगलों की भी पूजा हुआ करती थी। वे ये है- भुंगार (पट प्रकार), कलश, दर्पण, चामर, ध्वज, व्यंजन (पंखा), छत्र, और सुप्रतिष्ठ (भद्रासन)। जिन बिम्ब के सिंहासन पर गज, सिह, कीचक, चमरधारी और अञ्जलिधारी पार्श्ववर्ती प्रतिकृतियाँ, शिरोभाग पर छत्रत्रय, छत्रत्रय के दोनों मोर सूंड में स्वर्णकलश लिये श्वेतगज, उनके ऊपर झांझ बजामेषाले पुरुष, उनके ऊपर मालाधारी और शिखर पर शंख फूकनेवाला पुरुष और उसके ऊपर कलश का अंकन होता है। जिन प्रतिमा के साथ सिहासन, दिव्यध्वनि, चामरेन्द्र, भामण्डल, अशोकवृक्ष, छत्रत्रय, दुंदुभि और पुष्पवृष्टि इन आठ प्रातिहार्यों को भी उत्कीर्ण किया जाता है। कहीं-कहीं बीच में धर्मचक्र और पार्श्व में यक्षयक्षिणी तथा आसपास देव, गज, सिह आदि को भी उकेरा जाता है। तीर्थंकरों के
१. आचार दिनकर, उवय ३३, पृ. २१० २. उपासकाम्ययन, ६१७-७०० ३. आचार दिनकर, पृ. १८१ ४. आचार दिनकर, उदय ३३ ५. प्रतिजसारसंबह ५-७४-७५, अपरावितपुच्छा, ५७; रूपमण्डव, ६. ३३. ३९;
प्रतिष्ठातिलक पृ. ५७९-५८१.