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अंकन अलंकृत रूप में होने लगा। इस काल की अम्बिका की प्रतिमाओं को चतुर्भुजी बना दिया गया। चौखटों, भ्रमतियों और कोष्ठों का अलंकरण इन्हीं प्रतिमाओं से होने लगा। विमल वसही का मन्दिर इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। ब्राह्मण्य आख्यानों का भी उपयोग होने लगा। इन सभी आकारों में अंकन सूक्ष्म और मनोहारी हुआ है।
उत्तरकालीन चालुक्य, विजयनगर, होयसल और यादव राजवंश में जैनधर्म को अधिक प्रश्रय नहीं मिल सका । वैष्णव धर्म से उसे जूझना पड़ा। फिर भी जैनकला का विकास अवरुद्ध नहीं हुआ । यहाँ के गर्भालयों की भित्तियों पर लोककला का शिल्पांकन हुआ जिनमें चेहरों पर रूक्षता तथा शिर पर आकुञ्चित केश और आंख भी उभरी हुई पुतलियां अंकित है। कांस्य प्रतिमाओं के निर्माण से अलंकरण का और अधिक विकास हुआ। इस समय की मूर्तियाँ विशाल और पालिशयुक्त हैं, सूक्ष्मांकन से हीन हैं, तथा वैराग्य की अभिव्यक्ति से परिपूर्ण हैं, परिकर के रूप में शिलाफलक पर सिंहललाट सहित मकर तोरण है तथा कंधों आदि अंगोंका आकार यथोचित है । होयसलों और पश्चिमी चालुक्यों की मूर्ति शैली में शरीर को संपुष्ट और मांसल दिखाया गया है।
___ तमिलनाडु की मूर्तिकला में ग्रेनाइट पाषाण का प्रयोग हुआ है। यहाँ की शैलीगत विशेषतायें यों देखी जा सकती हैं-त्रिच्छत्र और लताओं का संयोजन, मष्तिस्क और शरीर की चतुष्कोणीय आकृति, मकर-तोरण या चमरधारियों के अंकन में कमी तथा हाथ पैर निर्बल और मस्तक छोटा। शक्करमल्लूर, हम्पी आदि स्थानों पर यह कला देखी जा सकती है । परन्तु दक्षिण विजयनगर और नायक वंशों के राजकाल में मूर्तिकला अपेक्षाकृत अधिक अलंकृत और समन्वित रही है।
दक्षिणापथ में जैनधर्म चौदहवीं शताब्दी से वर्तमान काल तक भी अधिक जागरित रहा। अनेक शासक और सामन्त जैनधर्मावलम्बी थे। कार्कल, वेणूर, गोमट्टगिरि आदि स्थानों पर विशालाकार गोमट्ट स्वामी की मनोहारी मूर्तियां उपलब्ध होती हैं। मालखेड, सेडम, मूडबद्री, हम्पी, हुम्मच आदि स्थान भी महत्त्वपूर्ण हैं। यहां की मूर्तियों में अनेक शैलियों का संमिश्रण दिखायी देता है । काकतीय शैली का भी प्रयोग हुआ है। मूर्तियाँ सुन्दर, आकर्षक और भावाभिव्यक्ति पूर्ण है। १. विशेष देखिये-डॉ. र. चम्पकलक्ष्मी, के. मा. श्रीनिवासन, के. पी. सौन्दरराजन
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