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मध्यभारत में इस काल में मूर्तियां परम्परा के अनुसार वृहत् परिमाण में बनी। सिद्धक्षेत्र और अतिशय क्षेत्रों को संबारा गया। सोनागिरि, द्रोणगिरि, रेशान्वीगिरि, ग्वालियर अहार, पपोरा, देवगढ़, बरहटा आदि स्थानों पर मन्दितें का निर्माण इसी अवधि में हुआ। इनमें नागर अथवा शिखर शैली का प्रयोग हुआ है। मूर्तियों का आकार विशाल बना। सौन्दर्य और भावाभिव्यक्ति में यद्यपि कमी नहीं आयी फिर भी परिमाण का आधिक्य होने से समरसता का पालन नहीं किया जा सका। ग्रेनाइट और बलुए पाषाण का प्रयोग किया गया। चंदेरी, उज्जैन, भानुपुरा (मन्दसौर), धार, बडवानी, झाबुआ, थूबन, कुण्डलपुर, बीना-आरहा, टीकमगढ, अजयगढ आदि उल्लेखनीय स्थान है।
दक्षिण भारत :
दक्षिणा पथ में सप्तम शताब्दी से दशम शताब्दी के बीच मूर्तियों की कलात्मक शैली में अधिक विकास हुआ है। बादामी पहाड़ी, मेगुटी पहाडी (ऐहोल), ऐलोरा, श्रवणवेलगोल आदि स्थानों पर उपलब्ध आदिनाथ, पार्श्वनाथ, शान्तिनाथ आदि की मूर्तियां विशेष आकर्षक है और यहाँ मूर्तिकलाके विकास में नये चरण संस्थापित होते हुए दिखाई देते है । तिरक्कोल, तिरुमल, वल्लिमल, चिट्टामूर, उत्तमवलयम, कुलुगुमल, चितराल, पालघाट, गोमट्टगिरि आदि ऐसे ही कलात्मक स्थान है। इनमें श्रवणवेलगोल की बाहुबली की मूर्ति विशेष दृष्टव्य है। इसे १४० मीटर ऊंची चोटी वाली ग्रेनाइट की चट्टान को काटकर बनाया गया है। अर्थनिमीलित ध्यानमग्न नेत्र, सौम्य स्मित ओष्ठ, संवेदनशील नासिका, और धुंगराले केश विशेष आकर्षक है । सभी अंगों का अंकन समन्वित और सन्तुलित ढंग से हुआ है। पालिश अभी भी नया-सा चमक रहा है। कार्कल, वेणूर और गोमट्टगिरि में भी बाहुबली की मूर्तियाँ है पर इतनी सुन्दर और विशालाकार नहीं। गोमटेश्वर की मूर्ति को राचमल्ल (९७४-९८४ ई.) के मंत्री चामुण्डराय ने ९८३ ई. में बनवाया। इस समय की मूर्ति शैलियों में पाण्डप, पल्लव और गंगा शैलियों का उपयोग किया गया है। ये मूर्तियां कहीं शैलाश्रित है और कहीं निर्मित है । केरल में जैनधर्म नवीं शती में चेरवंश काल में पहुँचा । तलक्क (कन्नानोर), चितराल तिरुच्चारणतुमले, कल्लिल, पालघाट आदि स्थानों पर जैन मूर्तियाँ बड़े परिमाण में उपलब्ध होती हैं। सभी का अंकन अलंकृत और आकर्षक है। चालक्य कालीन मतिकला में अम्बिका और कुबेर का अंकन तीर्थंकरों के
TAHIREET STORIES परिकर रूप में अधिक लोकप्रिय हुआ। साथ ही अन्य देवी देवताओं का भी