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शासकों ने जैन मूर्तियों और मन्दिरों का निर्माण सहृदयता पूर्वक कराया। ठक्कर फेर (१३१५ ई.) के वास्तुसार से पता चलता है कि इस समय नहारशैली को पश्चिम भारतीय रूप में रूपान्तरित करने का प्रयत्न किया गया। चित्तोड़, रणकपुर, पालीताना, गिरनार आदि स्थानों में उपलब्ध मूर्तियां इसके उदाहरण हैं। सुषड़ता और अलंकारिता इस काल की मूर्तिशैली अन्यतम विशेषतायें हैं। कुछ मूर्तियां ऐसी भी मिलती हैं जो भोंडी आकृति की हैं। कहा जाता है कि शाह जीवराज पापडीवाल ने सं. १५४८ (१४९० ई.) में लगभग एक लाख मूर्तियां बनवाकर सारे भारतवर्ष में वितरित करायी थीं।
मध्यभारत :
मध्यभारत में गुप्तोत्तरकालीन मूर्तियों में कुण्डलपुर (जिला दमोह) की पार्श्वनाथ प्रतिमा, पिथोरा (सतना ) के पतियानी देवी के मन्दिर की कुछ जैन मूर्तियाँ, तेवर (त्रिपुरी) की धर्मनाथ की मूर्ति, ग्वालियर किले की अंबिका तथा आदिनाथ की मूर्तियां, ग्यारसपुर (विदिशा) की यक्ष-यक्षियों तथा तीर्थंकरों की मूर्तियां, और देवगढ़ की शान्तिनाथ की मूर्तियाँ विशेष दृष्टव्य हैं। पश्चिमी भारत में बलभी नगरी इस काल में भी जन कला केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित बनी रही। यहां की मतियां अकोटा की मूर्तियों से मिलती-जुलती हैं। बडवानी (वावनगजा) की १३-१४ वीं शती की ८४ फीट की खडगासन प्रतिमा भी नल्लेखनीय है।
यहां खजराहो की चंदेलकालीन कला प्रसिद्ध है। यहाँ की जैन मतियों में कुछ आराध्य मूर्तियाँ है जो कोरकर बनायी गयी हैं और रीतिबद्ध हैं, कुछ शासन देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं जो मानवके समान अलंकृत हैं पर कौस्तुभ मणि या श्रीवत्स तथा लंबी माला से पृथक्ता लिये हुये हैं। कुछ अप्सराओं और सुरसुन्दरियों की तारुण्य लिये मूर्तियां हैं जो अधिक अलंकृत और लुभावने हावभाव से युक्त हैं और कुछ पशु-पक्षियों की प्रतीकात्मक मूर्तियां हैं जो कुछ अधिक वैशिष्टय लिये हुये हैं। यहां की मूर्तिकला में "पूर्व की संवेदनशीलता तथा पश्चिम की अधीरतापूर्ण किन्तु मृदुलता हीन कला का सुखद संयोजन हैं।"
१. विशेष देखिणे- पश्चिम व मध्यभारत में. मू. पी. शाह, कृष्णदेव, अशोक कुमार
भट्टाचार्म; पैन कल, बग्रेल, १९६९.