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मूर्ति और स्थापत्य कला के सिद्धान्त :
मूर्तिकला का संक्षिप्त सवक्षण करने पर हम प्रायः यह पाते हैं कि जैनमूर्तियाँ केवल दो आसनों में बनायी जाती हैं — खड्गासन ( कायोत्सर्ग) और पद्मासन । खड्गासन में हाथ लम्बायमान रहते हैं और पद्मासन में बायें हाथ की हथेली दायें हाथ की हथेली पर न्यस्त रहती है। ये प्रतिमायें दिगम्बर, श्रीवत्सयुक्त, नखकेशविहीन, परम शान्त, वृद्धत्व और बाल्य रहित, तथा तरुण एवं वैराग्य भावों से ओतप्रोत रहती हैं । उनमें ध्यानावस्था और नासाग्रदृष्टि का होना भी आवश्यक माना गया है ऋषमदेव के पुत्र बाहुबली की मूर्तियाँ कायोत्सर्ग अवस्था में ही मिलती हैं। उनका परिमाण भी बहुत अधिक है ।
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तीर्थंकर मूर्तियाँ :
साधारणतः पञ्चपरमेष्ठियों में अहंत् और सिद्ध की प्रतिमायें अधिक मिलती हैं । अर्हत् प्रतिमाओं में अष्टप्रातिहार्य, दायीं ओर यक्ष और बायीं ओर यक्षिणी, पादपीठ के नीचे लाञ्छन, छत्रत्रय, अशोक वृक्ष, देवदुन्दुभि, सिंहासन और धर्मचक्र आदि का अंकन होता है । सिद्ध- प्रतिमाओं में अष्टप्रातिहार्य नहीं होते । कुछ प्रतिमाओं में विशेष चिन्ह भी होते हैं । जैसे आदिनाथ की प्रतिमा जटाशेखर युक्त होती है तथा सुपार्श्वनाथ के मस्तक पर पञ्चफणी छत्र और पार्श्वनाथ के मस्तक पर सप्तफणी छत्र होता है । अर्धोन्मीलित नेत्र, लम्बकर्ण श्रीवत्स, धर्मचक्र आदि विशेषतायें भी जैन मुर्तियों में दिखायी देती हैं । जिन प्रतिमाओं के अंग हीन, वक्र अथवा अधिक हों, वे पूज्य नहीं होतीं । भग्न प्रतिमाओं को भी अपूज्य माना गया है ।
अर्हत् प्रतिमाओं में जिन अष्ट प्रतिहार्यों को उकेरा जाता है वे हैंसिंहासन, दिव्यध्वनि, चामरेन्द्र, भामण्डल, अशोकवृक्ष, छत्रत्रय, दुंदुभि और पुष्पवृष्टि । तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म तप, ज्ञान और निर्वाण इन पाँच घटनाओं को पञ्चकल्याणकों के रूप में अंकन किया जाता है । प्रतिमाओंका अंकन कालान्तर में निर्धारित वर्ण परम्परा के अनुसार भी होने लगा । अभिधान चिन्तामणि में पद्मप्रभ और वासुपूज्य को रक्तवर्ण का, चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्त को शुक्लवर्ण का, मुनिसुव्रत और नेमिनाथ को कृष्णवर्ण का, मल्लि और पार्श्वनाथ को नीलवर्ण का तथा शेष तीर्थंकरों को स्वर्ण के समान पीत वर्ण का बताया गया है ।" 'चन्देरी की चौबीस जिन प्रतिमायें उनके वर्णों के अनुसार निर्मित हुई हैं ।
१. अभिधान चिन्तामणि, १.४९.